क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य को शब्द देने आया हूँ जिसे मनुष्य जानता तो है, पर मानने से बचता है — क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। यह शत्रु बाहर नहीं रहता, यह किसी दूसरे रूप में आकर आक्रमण नहीं करता, यह तो मनुष्य के भीतर ही जन्म लेता है, उसी के विचारों से पोषित होता है और उसी की बुद्धि को सबसे पहले नष्ट करता है। यही कारण है कि क्रोध से पराजित मनुष्य को पराजित करने के लिए किसी बाहरी शत्रु की आवश्यकता नहीं पड़ती।
क्रोध कोई अचानक उत्पन्न होने वाली अग्नि नहीं है। वह भीतर लंबे समय से जमा असंतोष, अपेक्षा, अहंकार और असंयम का विस्फोट है। जब मनुष्य चाहता है कि संसार उसकी इच्छा के अनुसार चले, लोग उसके अनुसार व्यवहार करें, परिस्थितियाँ उसके अनुकूल रहें, और जब ऐसा नहीं होता — तब क्रोध जन्म लेता है। इसलिए क्रोध का मूल कारण दूसरा व्यक्ति नहीं, परिस्थिति नहीं, बल्कि मनुष्य की अपनी अपेक्षाएँ होती हैं।
शास्त्रों ने कहा है कि क्रोध बुद्धि का नाश करता है। यह कोई उपदेशात्मक बात नहीं, बल्कि अनुभव का सत्य है। जब मनुष्य क्रोधित होता है, उस क्षण वह सही–गलत का विवेक खो देता है। वह ऐसे शब्द बोल देता है जिन्हें वापस नहीं लिया जा सकता, ऐसे कर्म कर देता है जिनका पश्चाताप जीवन भर पीछा करता है। क्रोध का एक क्षण वर्षों के साधे हुए संबंधों को जला सकता है, जीवन भर की कमाई गई प्रतिष्ठा को मिट्टी में मिला सकता है, और स्वयं मनुष्य को भीतर से खोखला कर सकता है।
क्रोध की सबसे बड़ी चालाकी यह है कि वह मनुष्य को यह विश्वास दिला देता है कि वह सही है। क्रोधित मनुष्य को अपना क्रोध न्याय लगता है, प्रतिकार लगता है, आत्मसम्मान लगता है। पर वास्तव में क्रोध आत्मसम्मान नहीं, आत्म-नियंत्रण की हार है। जो व्यक्ति स्वयं पर शासन नहीं कर सकता, वह किसी और को कैसे सही दिशा दिखा सकता है।
महाभारत से लेकर उपनिषदों तक, हर जगह यह चेतावनी दी गई है कि क्रोध विनाश का द्वार है। क्रोध से मोह उत्पन्न होता है, मोह से स्मृति भ्रमित होती है, स्मृति भ्रमित होने पर बुद्धि नष्ट होती है, और बुद्धि नष्ट होने पर मनुष्य स्वयं का ही नाश कर लेता है। यह एक श्रृंखला है, और इसका पहला कड़ी क्रोध है।
क्रोध केवल दूसरों को नहीं जलाता, वह सबसे पहले स्वयं को जलाता है। भीतर उठने वाली यह अग्नि मनुष्य की शांति, उसकी नींद, उसका स्वास्थ्य, उसका विवेक — सब कुछ धीरे-धीरे भस्म कर देती है। क्रोधित व्यक्ति बाहर से चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न दिखे, भीतर से वह अत्यंत कमजोर होता है। क्योंकि जो शांत नहीं रह सकता, वह स्थिर नहीं रह सकता, और जो स्थिर नहीं, वह सुखी नहीं हो सकता।
यह भी समझना आवश्यक है कि क्रोध शक्ति नहीं है, बल्कि शक्ति का क्षय है। सच्ची शक्ति वह है जो उत्तेजना में भी संयम रख सके, अपमान में भी मर्यादा न छोड़े, और अन्याय के सामने भी विवेक न खोए। जो मनुष्य क्रोध में चिल्लाता है, वह अपने भीतर की असहायता को व्यक्त कर रहा होता है। शांत मनुष्य कहीं अधिक प्रभावी होता है, क्योंकि उसकी बात शब्दों से नहीं, उसके अस्तित्व से निकलती है।
क्रोध का समाधान उसे दबाना नहीं है, क्योंकि दबा हुआ क्रोध और भी विकराल रूप ले लेता है। समाधान है — उसे समझना। यह देखना कि क्रोध किस अपेक्षा से जन्म ले रहा है, किस अहंकार को चोट लगी है, किस डर ने भीतर हलचल मचाई है। जैसे ही मनुष्य अपने भीतर झाँकने लगता है, क्रोध अपनी पकड़ खोने लगता है। आत्मचिंतन क्रोध का सबसे बड़ा शत्रु है।
क्षमा को अक्सर दुर्बलता समझा जाता है, पर वास्तव में क्षमा ही सबसे बड़ा साहस है। जो क्षमा कर सकता है, वह अपने मन पर शासन करता है। जो क्रोध को छोड़ सकता है, वही वास्तव में स्वतंत्र है। क्योंकि क्रोधित व्यक्ति परिस्थितियों का गुलाम होता है, और शांत व्यक्ति परिस्थितियों का स्वामी।
ध्यान, संयम, साधना, सेवा — ये सब क्रोध को शांत करने के मार्ग हैं। पर सबसे बड़ा उपाय है — यह स्मरण रखना कि हर क्रोध का क्षण जीवन से कुछ न कुछ छीन लेता है। शांति कुछ नहीं छीनती, वह केवल जोड़ती है।
मनुष्य जीवन का उद्देश्य लड़ना नहीं, जागना है। और क्रोध नींद है — एक ऐसी नींद जिसमें मनुष्य स्वयं को भी खो देता है। जब क्रोध जाता है, तब विवेक लौटता है। जब विवेक लौटता है, तब जीवन फिर से सही दिशा में बहने लगता है।
इसीलिए ऋषियों ने स्पष्ट कहा — जो बाहरी शत्रु से लड़ता है, वह योद्धा है। जो अपने क्रोध से लड़ता है, वही वास्तव में विजेता है।
और जो अपने क्रोध को जीत लेता है, उसके लिए संसार में कोई भी शत्रु शेष नहीं रहता। यही कारण है कि क्रोध मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, और उससे मुक्ति ही वास्तविक विजय है।
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