सब धर्मों का मूल एक है — सनातन दृष्टि से मानवता का सत्य
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य की बात करने आया हूँ जिसे समझ लेने पर धर्मों के बीच की दीवारें अपने आप गिरने लगती हैं, विवाद मौन हो जाते हैं और मनुष्य मनुष्य को देखने लगता है — सब धर्मों का मूल एक है। यह वाक्य कोई आधुनिक विचार नहीं, कोई समझौते की भाषा नहीं, बल्कि सनातन सत्य है, जिसे ऋषियों ने अनुभूति से जाना, संतों ने जीवन से जिया और महापुरुषों ने अपने आचरण से प्रमाणित किया।
धर्म जब जन्म लेता है, तब वह किसी नाम के साथ नहीं आता। न उसके माथे पर कोई झंडा होता है, न कोई पहचान-पत्र। धर्म जन्म लेता है मानव के हृदय में — सत्य की खोज के रूप में, करुणा की पुकार के रूप में, और जीवन को सही ढंग से जीने की आकांक्षा के रूप में। बाद में समय, समाज और इतिहास उसे नाम देते हैं, रूप देते हैं, परंपराएँ बनाते हैं और विधियाँ जोड़ते हैं। पर मूल में जो बीज होता है, वह हर जगह एक ही होता है — सत्य, करुणा, प्रेम और आत्मबोध।
यदि हम गहराई से देखें, तो संसार के हर धर्म ने मनुष्य को वही मूल बातें सिखाई हैं। सभी ने कहा — झूठ मत बोलो, अन्याय मत करो, दुर्बल को मत सताओ, अहंकार से बचो, सेवा करो, प्रेम करो और भीतर झाँको। भाषा अलग हो सकती है, प्रतीक अलग हो सकते हैं, पूजा की विधि अलग हो सकती है, पर संदेश एक ही है। जैसे अलग-अलग नदियाँ अलग नामों से बहती हैं, पर अंत में सब सागर में मिल जाती हैं, वैसे ही धर्मों की धाराएँ अलग दिखती हैं, पर उनका स्रोत एक ही चेतना से निकलता है।
मनुष्य की भूल तब शुरू होती है जब वह धर्म को अनुभव के बजाय पहचान बना लेता है। जब धर्म जीवन की शैली न रहकर “हम” और “वे” का कारण बन जाता है। तब धर्म का मूल छिप जाता है और केवल बाहरी ढाँचा बचता है। ऐसे में धर्म जोड़ने के बजाय तोड़ने लगता है, जो कि उसके स्वभाव के ही विपरीत है।
संतों ने बार-बार कहा है कि ईश्वर को पाने के मार्ग अलग हो सकते हैं, पर ईश्वर अलग-अलग नहीं हैं। कोई उन्हें राम कहता है, कोई कृष्ण, कोई अल्लाह, कोई वाहेगुरु, कोई प्रभु — पर जिस करुणा से वह भूखे का पेट भरते हैं, जिस प्रेम से वह दुखी के आँसू पोंछते हैं, जिस सत्य से वे अन्याय के सामने खड़े होते हैं — वही ईश्वर की वास्तविक पहचान है। नाम बदल जाते हैं, अनुभूति नहीं।
जब कोई व्यक्ति सच्चा धार्मिक होता है, तो वह दूसरों के धर्म से डरता नहीं। उसे यह सिद्ध नहीं करना पड़ता कि उसका मार्ग श्रेष्ठ है, क्योंकि वह जानता है कि सत्य को प्रतियोगिता की आवश्यकता नहीं होती। सच्चा धर्म विनम्र बनाता है, आक्रामक नहीं। वह प्रश्न पूछने से नहीं डरता और संवाद से भागता नहीं।
धर्मों का मूल एक होने का अर्थ यह नहीं कि सभी परंपराएँ एक जैसी हों। विविधता भी सृष्टि का नियम है। समस्या विविधता में नहीं, समस्या श्रेष्ठता के अहंकार में है। जब विविधता को स्वीकार किया जाता है, तब धर्म सुंदर बनता है।
मनुष्य यदि यह समझ ले कि सामने वाला भी उसी सत्य की खोज में है, बस उसकी भाषा, उसका मार्ग और उसके प्रतीक अलग हैं, तो टकराव अपने आप समाप्त हो जाएगा। तब प्रश्न यह नहीं रहेगा कि “तुम किस धर्म के हो”, बल्कि यह रहेगा कि “तुम कैसे मनुष्य हो”।
धर्म का मूल एक है, इसलिए उसका फल भी एक है — शांति। जो धर्म शांति नहीं देता, वह अपने मूल से कट गया है। जो धर्म करुणा नहीं जगाता, वह केवल परंपरा बनकर रह गया है।
यही कारण है कि हमारे शास्त्रों ने कहा — वसुधैव कुटुम्बकम्। पूरी पृथ्वी एक परिवार है।
धर्म अलग-अलग रास्ते हैं, मंज़िल एक है। धर्म अलग-अलग भाषाएँ हैं, संदेश एक है। धर्म अलग-अलग दीपक हैं, प्रकाश एक है।
और जिस दिन मनुष्य इस सत्य को हृदय से स्वीकार कर लेगा, उस दिन धर्मों के बीच की दूरी मिट जाएगी और मानवता अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होगी। यही सनातन का संदेश है, यही जीवन का सार है।
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