सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

ऋग्वेद — मण्डल 1, सूक्त 1, ऋचा 3 | Rigveda Mandal 1 Sukta 1 Richa 3 |

ऋग्वेद — मण्डल 1, सूक्त 1, ऋचा 3 | Rigveda Mandal 1 Sukta 1 Richa 3 | सनातन संवाद

ऋग्वेद — मण्डल 1, सूक्त 1, ऋचा 3 (पूर्ण विस्तृत रूप)

Rigveda Mandal 1 Sukta 1 Richa 3 - Agni Sukta

अति दिव्य और गम्भीर प्रस्तुति! आपने तीसरी ऋचा का स्वरूप अत्यंत सुन्दर रूप में रखा है — भाव, अर्थ और दर्शन सब मिलकर अग्नि के यथार्थ स्वरूप को उजागर करते हैं...

ऋग्वेद — मण्डल 1, सूक्त 1, ऋचा 3

मूल संस्कृत (देवनागरी):

अग्निना रयिमश्नवत् पोषमेव दिवे-दिवे।
यशसं वीरवत्तमम्॥

जो साधक अग्नि — यानी चेतना, श्रद्धा और सत्कर्म की ज्योति — को अपने भीतर प्रतिदिन प्रज्वलित रखता है,
वही सच्चा समृद्ध होता है।
उसे ज्ञान, पोषण, यश और वीरत्व — चारों का वरदान मिलता है।


शब्दार्थ (शब्द-दर-शब्द अर्थ):

पदअर्थ
अग्निनाअग्नि के द्वारा / अग्नि के सहारे
रयिम्धन, समृद्धि, ऐश्वर्य
अश्नवत्प्राप्त करता है / प्राप्त करता रहे
पोषम् एवपोषण ही / पालन-पोषण
दिवे-दिवेप्रतिदिन / हर दिन
यशसम्यश, कीर्ति, श्रेष्ठता
वीरवत्तमम्वीरों से सम्पन्न / साहसी संतान या समर्थ पुरुषों वाला

भावार्थ (सरल भावयुक्त हिन्दी):

जो मनुष्य अग्नि की आराधना करता है, वह अग्नि की कृपा से प्रतिदिन धन, पोषण और यश प्राप्त करता है। अग्नि ही मनुष्य को बल, तेज, कीर्ति और वीर-संतानों से सम्पन्न करती है।


दार्शनिक और आध्यात्मिक अर्थ:

यह ऋचा अग्नि को समृद्धि, पोषण और यश का दाता बताती है — पर इसका गूढ़ अर्थ केवल भौतिक नहीं है।

  • “अग्नि” यहाँ जीवन की प्रेरक चेतना है — वह शक्ति जो कर्म में गति और मन में प्रकाश देती है।

  • “रयि” (धन) — केवल भौतिक संपत्ति नहीं, बल्कि ज्ञान, संस्कार, सत्कर्म और आत्म-बल का प्रतीक है।

  • “पोषः” — आत्म-विकास, सत्पोषण; सत्-गुणों की वृद्धि।

  • “यशः” — सत्य के पथ पर चलने से उत्पन्न प्रतिष्ठा; न कि केवल नाम या प्रसिद्धि।

  • “वीरवत्तमम्” — वह व्यक्ति या वंश जो कर्म, साहस और धर्म-निष्ठा से भरा हो।

अर्थात् —
जो व्यक्ति अपने जीवन में अग्नि रूपी सत्य, कर्म और श्रद्धा को स्थापित करता है, वही प्रतिदिन अपने जीवन में समृद्धि, ज्ञान, यश और बल को प्राप्त करता है।


कर्मकाण्डीय संदर्भ:

यज्ञ में यह ऋचा अग्नि-प्रशंसा और फल-संकल्प के रूप में उच्चारित होती है।
यह भक्त के हृदय में यह भाव स्थापित करती है कि —
“मैं अग्नि (प्रेरणा) के माध्यम से प्रतिदिन पोषित और तेजस्वी बनूँ।”


आध्यात्मिक चिंतन:

यहाँ “दिवे-दिवे” (हर दिन) शब्द अत्यंत महत्वपूर्ण है —
वेद कहता है कि यज्ञ एक दिन का कर्म नहीं, यह प्रतिदिन का आचरण है।
अग्नि को जलाए रखना अर्थात् अपने भीतर के संकल्प, सत्य और साधना की ज्वाला को जीवित रखना।
जो इसे रोज़ प्रज्वलित रखता है, वह संसार में यशस्वी और वीर बनता है।




Common label: Rigved, Vedic Rituals, Ved

Author: तुनारिं | Published by सनातन संवाद © 2025

टिप्पणियाँ