दीपावली: वैदिक उत्पत्ति और परंपरा
जब मनुष्य ने अभी लिपियाँ नहीं गढ़ी थीं, जब पर्व और उत्सव तिथियों में नहीं बल्कि ऋतुओं की धड़कनों में बसते थे, तब भी प्रकाश और अंधकार का संवाद मानव-चेतना को स्पर्श करता था। दीपावली का उद्गम वैसा नहीं है जैसा आज के कैलेंडर में दिखता है; उसका जन्म मनुष्य की प्रथम अनुभूति से जुड़ा है—अंधकार से उजाले की ओर, भय से विश्वास की ओर, असुरक्षा से मंगल की ओर। तब अग्नि केवल ताप नहीं थी, यह जीवित देवता थी—रक्षक भी, मार्गदर्शक भी। जब ऋषि अपने आश्रमों में प्रथम अग्निकुण्ड प्रज्वलित करते थे, तो उसे केवल यज्ञ के लिए नहीं, बल्कि चेतना के जागरण के लिए जगाया जाता था। दीपों का विचार उसी अग्नि की स्मृति है, जो कभी देवताओं और मनुष्यों के बीच संवाद की सेतु मानी जाती थी। दीपावली का सबसे प्राचीन रूप संभवतः तब उभरा जब नवचांद की रात्रि में, जब आकाश का मुख अंधकार से ढक जाता था, तब ऋषि और गृहस्थ अपने द्वारों पर अग्नि के छोटे–छोटे पात्र रखते थे ताकि वन्य पशु दूर रहें, दिशाएँ सुरक्षित रहें, और आत्मा को यह स्मरण रहे कि उजाला नष्ट नहीं होता, केवल ओझल होता है।
समय बदला, युग बदले, सभ्यताएँ बनीं और बिखरीं, पर अग्नि का यह आदर दीप में रूपांतरित होकर पीढ़ियों तक प्रवाहित हुआ। यह कहना अधूरा होगा कि दीपावली केवल किसी एक घटना के कारण उत्पन्न हुई—वह तो अनेक आयामों का संगम है। यह पृथ्वी और आकाश, ऋतु और कृषि, ऋषि और गृहस्थ, देव और मानव, कथा और अनुभव—सबके सम्मिलित स्वर से बनी एक महागाथा है। वैदिक काल में ‘दीप’ शब्द का प्रयोग उतना नहीं मिलता जितना ‘अग्नि’, किंतु ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ का भाव जीवन के प्रत्येक स्तर में व्याप्त था। जब वर्षा ऋतु सम्पन्न होती और शरद की शीतलता धरती को स्पर्श करती, तब ऋषियाँ आकाश को निहारकर कहते—अब धरती विश्राम नहीं करती, अब बीज भीतर से पाँख फैलाता है। यह वही समय था जब नदियाँ स्थिर होती थीं, मेघ शांत हो जाते थे और कृषक का मन गंभीर हो जाता था। अन्न भंडारों में संचित होता था और पशुओं को विश्राम दिया जाता था। यह प्रकृति का एक ऐसा मोड़ था जहाँ उत्सव केवल उल्लास नहीं, बल्कि संकल्प और कृतज्ञता का प्रतीक था।
यहीं कहीं दीपावली का प्रथम सांध्य उदित हुआ—जब भूमिपुत्र अपने गौधन के प्रति ऋणी होते थे और ऋषि यज्ञिक अग्नि के माध्यम से देवताओं के प्रति आभार प्रकट करते थे। आज जिसे हम ‘वसुबारस’ कहते हैं, वह मूलतः उस कालखंड की स्मृति है जब गाय केवल पशु नहीं, जीवन और समृद्धि का पर्याय थी। वैदिक संस्कृत में ‘वसु’ का एक अर्थ धन है, एक अर्थ प्रकाश भी। गाय को ‘अघ्न्या’ कहा गया—जिसे मारा न जाए। ऋग्वेद में अश्व और गौ दोनों ऊर्जा और गति के प्रतीक रूप में स्तुत हैं। कृषक गृहस्थ सायंकाल में जब गौशाला में दीपवत अग्नि रखते, तो वह केवल रोशनी के लिए नहीं बल्कि इस भावना से कि जिन वत्सों ने धरती को सींचा, जिनने अग्नि के लिए घृत दिया, जिन्हें ऋषि ‘विश्व की माता’ मानते थे, उनकी सेवा से ही मानव का जीवन चलता है। इसीलिए आज की वसुबारस केवल प्रथा नहीं, आदिम कृतज्ञता की स्मृति है।
फिर धीरे-धीरे यह प्रवाह धन के सम्मान तक बढ़ा। धन वैदिक युग में आज की मुद्रा की तरह नहीं था—वह अन्न, गौ, सुवर्ण, औषधि, धातु और स्वास्थ्य तक फैला हुआ एक सामूहिक भाव था। धनतेरस का मूल भी स्वास्थ्य, धातु-शुद्धि और औजारों की सृष्टि से जुड़ा है। प्राचीन लोहावरों और कुम्भकारों के लिए, वर्षात के पश्चात् जब धरणी सूखने लगती तो धातु को पुनः तपाया जाता, औजारों की मरम्मत होती, घरों की दीवारों में नई मिट्टी लगती। प्राचीन आयुर्वेदाचार्य इस समय शरीर की अग्नि को भी संतुलित करने के लिए औषध-निर्माण और धातु-चूर्ण की प्रक्रिया करते थे। ‘धन्वंतरि’ केवल देवता नहीं, वैद्यक और जीवन-संरक्षा के प्रतीक थे। धनतेरस की संध्या पर मिट्टी, धातु, सुवर्ण और अनाज पर दीप रखना उसी स्मृति को जीवित रखता है जिसमें जीवन के सब साधन धरती और अग्नि से उत्पन्न होते हैं।
नरक चतुर्दशी का आशय यदि केवल असुर-वध तक सीमित कर दें तो यह कथा का अपमान होगा। ‘नरक’ प्राचीन समय में एक व्यक्ति नहीं, एक प्रवृत्ति थी—अंधकार, कुण्ठा, गहन अवसाद और भूखमरी का मिश्रण। जब वर्षा ऋतु के अवसान पर अन्न की पहली खेप संग्रहित होती, तब पुराने अनाज, कीट और रोगजनक तत्वों को घरों से हटाया जाता। तेल, आटा, धान्य, नमक और तिल-घृत की शुद्धि आरम्भ होती। सायंकाल स्त्रियाँ अपने आंगन में दीप रखतीं, शरीर पर सुगंधित तेल मलकर स्नान करतीं और बालकों को तैलाभिषेक कर आशीष देतीं। यह केवल कथा नहीं, जीवन की वास्तविकता थी—क्योंकि सबसे बड़ा नरक वह नहीं जिसे मृत्यु के बाद बताया गया, बल्कि वह था जिसे अज्ञान, रोग, तामस और आलस्य से मनुष्य स्वयं रच लेता था। इसीलिए आज भी दक्षिण भारत में ‘अभ्यंग स्नान’ और तेल से जुड़े अनुष्ठान उसी पुरातन वैदिक चिकित्सा के स्मारक हैं।
जब हम दीपावली की अमावस्या तक पहुँचते हैं तो हमें यह समझना होगा कि यह रात केवल एक पर्व नहीं—यह युगों के अंत और प्रारंभ की रात्रि थी। चंद्र का शून्य होना ऋषियों के लिए मौन का क्षण था। अग्नि के अतिरिक्त उस रात्रि में कोई साक्षी नहीं रखा जाता था। गृहस्थ, वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण—सब अपने-अपने गृहद्वार पर दीप रखते थे ताकि यह स्मरण रहे कि जब सब लोक अंधकार में डूबा हो, तब भीतर की चेतना बुझनी नहीं चाहिए। श्रीराम के अयोध्या लौटने की कथा, लक्ष्मी के समुद्र से प्राकट्य की परंपरा, विष्णु के योगनिद्रा से जागरण की स्मृति—ये सब बाद में विभिन्न प्रदेशों की परंपराओं में एक-एक कर जुड़ते चले गए, पर मूल में दीप था, अन्न था, पशु था, अग्नि थी, और मानवीय जीवन की निरंतरता थी।
उसके अगले दिवस जिसे हम आज ‘गोवर्धन पूजा’ या ‘अन्नकूट’ या ‘बली प्रतिपदा’ कहते हैं, वह कई परंपराओं का संगम है। कहीं यह प्रकृति-संरक्षण और वर्षा-चक्र के प्रति आभार का पर्व है, तो कहीं यह स्मृति है कि देवत्व केवल आकाश में ही नहीं, धरती के गर्भ में भी निवास करता है। राजा बली और भगवान विष्णु की कथा, इन्द्र और कृष्ण का संवाद, अन्न का अर्पण और पशुधन का पूजन—इन सबने इस दिन को बहुआयामी बना दिया। किन्तु मूल यह है कि धरती जब वर्षा से मुक्त हो जाती है, तब अगली ऋतु का आरम्भ अन्न-समृद्धि के व्रत से किया जाता है।
और अंत में भाईदूज—यह केवल भाई-बहन का स्नेह उत्सव नहीं, बल्कि उस प्राचीन व्यवस्था की स्मृति है जिसमें कुलों, परिवारों और गोत्रों के बीच सामंजस्य, संरक्षण और प्रेम बना रहे। स्त्रियाँ जब अपने मायके जातीं तो नए अन्न, नए दीप और नए संस्कार लेकर लौटतीं। अनेक गुरुकुलों में यह समय विश्राम का होता था और ऋषि अपने शिष्यों को गृहगमन की अनुमति देते थे। भाई का मस्तक केवल तिलक से नहीं सुशोभित होता था, बल्कि वह इस भाव से कि कुल की मर्यादा और बहन का सम्मान उसके द्वारा संरक्षित है।
यह तो केवल दीपावली की उस जड़ का प्रारंभिक चित्रण है जो युगों के तल में सोया हुआ है। आगे के भागों में हम इन सभी दिवसों को विस्तार से एक-एक युग और कथा के साथ खोलेंगे—कहाँ ऋग्वैदिक संकेत हैं, कहाँ ब्राह्मण-ग्रंथों का स्पर्श है, कहाँ पुराणों ने रूप गढ़ा, कहाँ स्मृतियों ने संरचना दी, और कहाँ आधुनिक भारत ने लोक-स्वरूप रचा।
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