सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

धर्म कोई मत नहीं, जीवन की शैली है | Sanatan Darshan | सनातन संवाद

धर्म कोई मत नहीं, जीवन की शैली है | Sanatan Darshan | सनातन संवाद

धर्म कोई मत नहीं, जीवन की शैली है

धर्म कोई मत नहीं जीवन की शैली है - सनातन दर्शन

नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।

आज मैं तुम्हारे सामने उस सत्य को खोलने आया हूँ जिसे समझ लेने के बाद धर्म को देखने की दृष्टि ही बदल जाती है — धर्म कोई मत नहीं, जीवन की शैली है। यह वाक्य केवल एक विचार नहीं, बल्कि सनातन की आत्मा है। जब तक मनुष्य धर्म को किसी मत, पंथ, संगठन या पहचान के दायरे में बाँधकर देखता है, तब तक वह धर्म के बाहरी वस्त्र ही देख पाता है, उसका प्राण नहीं। धर्म का प्राण तो जीवन के हर श्वास में है, हर कर्म में है, हर संबंध में है, हर निर्णय में है।

मत वह होता है जिसे अपनाया या छोड़ा जा सकता है। मत वह होता है जिसमें “मैं” और “तू”, “हम” और “वे”, “अपने” और “पराए” की रेखाएँ खिंच जाती हैं। पर धर्म वह है जो इन सभी रेखाओं को मिटा देता है। धर्म जीवन को बाँटता नहीं, जोड़ता है। मत पहचान देता है, धर्म दिशा देता है। मत कहता है – “तुम कौन हो”, धर्म पूछता है – “तुम कैसे हो”।

सनातन धर्म ने कभी नहीं कहा कि केवल वही धर्म है जो किसी किताब में लिखा हो या किसी नाम से जाना जाए। सनातन धर्म ने तो जीवन को ही ग्रंथ माना है और अनुभव को ही शास्त्र। इसीलिए हमारे यहाँ धर्म का अर्थ पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रहा। धर्म का अर्थ है – सही समय पर सही कर्म, सही भावना के साथ करना। माँ का बच्चे के लिए त्याग धर्म है। पिता का कर्तव्य धर्म है। राजा का न्याय धर्म है। किसान का परिश्रम धर्म है। साधु का संयम धर्म है। गृहस्थ का संतुलन धर्म है।

यदि धर्म केवल मत होता, तो वह दिन के कुछ घंटों तक सीमित रहता — मंदिर, मस्जिद, चर्च या गुरुद्वारे तक। पर धर्म जीवन की शैली है, इसलिए वह उठने से लेकर सोने तक हमारे साथ चलता है। हम कैसे बोलते हैं, कैसे कमाते हैं, कैसे खाते हैं, कैसे सोचते हैं, कैसे क्रोध करते हैं, कैसे क्षमा करते हैं — यही सब धर्म के क्षेत्र हैं। जो व्यक्ति सुबह भगवान का नाम ले और दिन में अन्याय करे, वह मत का पालन कर सकता है, धर्म का नहीं।

धर्म का संबंध बाहरी आडंबर से नहीं, आंतरिक अनुशासन से है। वस्त्र से नहीं, वृत्ति से है। शब्दों से नहीं, संवेदना से है। धर्म सिखाता है कि शक्ति का प्रयोग सेवा के लिए हो, ज्ञान का प्रयोग विनम्रता के लिए हो, धन का प्रयोग परोपकार के लिए हो, और जीवन का प्रयोग आत्मविकास के लिए हो।

जब धर्म जीवन की शैली बन जाता है, तब मनुष्य को अलग से “धार्मिक” होने का प्रयास नहीं करना पड़ता। उसका चलना, बोलना, खाना, सोचना — सब कुछ सहज रूप से धर्ममय हो जाता है। वह किसी से डरकर नहीं, किसी लालच में नहीं, बल्कि अपने अंतःकरण की आवाज़ से सही कर्म करता है। यही वास्तविक धार्मिकता है।

आज की सबसे बड़ी भूल यही है कि धर्म को मत समझ लिया गया है। मत टकराते हैं, धर्म समन्वय करता है। मत दीवारें बनाते हैं, धर्म सेतु बनाता है। मत विवाद पैदा करते हैं, धर्म समाधान देता है।

सनातन परंपरा ने कभी नहीं पूछा कि तुम किस मत के हो, उसने केवल यह देखा कि तुम कैसे मनुष्य हो। तुम्हारे कर्म कैसे हैं, तुम्हारी दृष्टि कैसी है, तुम्हारा हृदय कितना व्यापक है।

इसलिए स्मरण रखो —
धर्म वह नहीं जो केवल कहा जाए, धर्म वह है जो जिया जाए।
धर्म कोई मत नहीं, जीवन की शैली है।

और जिस दिन यह शैली तुम्हारे जीवन में उतर जाएगी, उस दिन तुम्हें धर्म की रक्षा नहीं करनी पड़ेगी — तुम्हारा जीवन स्वयं धर्म की रक्षा बन जाएगा।


📢 Share This Post

Share on WhatsApp | Share on Facebook

🙏 Support Us / Donate Us

हम सनातन ज्ञान, धर्म–संस्कृति और आध्यात्मिकता को सरल भाषा में लोगों तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं। यदि आपको हमारा कार्य उपयोगी लगता है, तो कृपया सेवा हेतु सहयोग करें।

Donate Now
UPI ID: ssdd@kotak


❓ FAQs

धर्म और मत में क्या अंतर है?

मत एक पहचान है जिसे अपनाया या छोड़ा जा सकता है, जबकि धर्म जीवन जीने की शैली और आचरण है।

सनातन धर्म क्यों जीवन की शैली कहा जाता है?

क्योंकि यह पूजा तक सीमित नहीं, बल्कि कर्म, विचार और व्यवहार में उतरता है।

क्या बिना पूजा के भी धार्मिक हुआ जा सकता है?

हाँ, यदि आचरण, सत्य और करुणा जीवन में हैं तो व्यक्ति धार्मिक है।

लेखक / Writer : तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By : सनातन संवाद

Copyright Disclaimer:
इस लेख का सम्पूर्ण कंटेंट लेखक तु ना रिं और सनातन संवाद के कॉपीराइट के अंतर्गत सुरक्षित है। बिना अनुमति इस लेख की नकल, पुनःप्रकाशन या उपयोग निषिद्ध है।

टिप्पणियाँ