ऋषि विश्वामित्र — एक राजा से ब्रह्मर्षि बनने की दिव्य यात्रा
ऋषि विश्वामित्र — एक राजा से ब्रह्मर्षि बनने की दिव्य यात्रा
जिस युग में पृथ्वी पर धर्म की मूर्ति निर्मित हो रही थी, उस समय कश्मीर से लेकर कांची तक महान तपस्वियों के तेज से भरा ब्रह्ममय वातावरण था। उसी काल में जन्म हुआ एक पराक्रमी, तेजस्वी, दृढ़-संकल्पी राजकुमार का—विश्वरथ, जो आगे चलकर विश्वामित्र बना और फिर ब्रह्मर्षि कहलाया।
जन्म और वंश
विश्वामित्र का जन्म त्रेतायुग में कूशिक वंश में हुआ।
उनके पिता थे—राजा गाधि, माता—महान वंश परम्परा वाली रानी।
कूशिक वंश स्वयं सूर्यवंश की शाखा था, जिसमें पराक्रम, नीति और दया—तीनों गुणों की प्रतिष्ठा थी।
बाल्यावस्था से ही विश्वरथ अत्यन्त साहसी, प्रखर बुद्धि के और युद्धकला में पारंगत थे।
धनुष, खड्ग, रथ-चालन, सैनिक-नीति—इन सबमें उन्हें कोई नहीं हरा सकता था।
राज्याभिषेक और प्रारम्भिक जीवन
युवावस्था में ही पिता की आज्ञा से वे राजा बने।
राजा के रूप में वे एक सफल, तेजस्वी, पराक्रमी शासक थे।
वे सम्राट बनने की क्षमता रखते थे—उनके राज्य में शक्ति, समृद्धि और न्याय के प्रखर नियम थे।
परंतु नियति ने उनके लिए कुछ और ही लिखा था।
एक बार विश्वरथ अपने विशाल सैन्य बल के साथ भ्रमण करते हुए ऋषि वशिष्ठ के आश्रम पहुँचे।
वशिष्ठ ने आतिथ्य-सत्कार में दिव्य गौ कामधेनु का उपयोग किया—जिसकी शक्ति से हजारों सैनिकों के लिए भोजन स्वयं प्रकट हो गया।
विश्वामित्र चकित रह गए।
उनके मन में विचार आया—
“राज्य की असली शक्ति तो शस्त्रों में नहीं, ऋषियों के तप में है।
जिसके पास ऐसी कामधेनु हो, वह तो सम्पूर्ण पृथ्वी का सम्राट हो सकता है!”
उन्होंने कामधेनु को लेने की इच्छा जताई, पर वशिष्ठ ने कहा—
“हे राजन, यह देवों द्वारा दी गई है, मैं इसे नहीं दे सकता।”
विश्वामित्र बलपूर्वक इसे ले जाना चाहते थे, परन्तु कामधेनु स्वयं, वशिष्ठ के तप के बल से, अचल खड़ी रही।
फिर वशिष्ठ ने अपने तप से शब्द-वेधास्त्र चलाया और सारी राजसेना नष्ट हो गई।
विश्वामित्र पराजित हुए।
यह पराजय बाहरी नहीं, भीतरी थी—
यह उनके जीवन को बदल देने वाली थी।
वे सोचने लगे—
“मैं राजा होते हुए भी एक तपस्वी के सामने शक्तिहीन हूँ।
सच्ची शक्ति शस्त्रों में नहीं, बल्कि तप और आत्मज्ञान में है।”
यही वह क्षण था जब राजा विश्वरथ के भीतर एक नयी सत्ता जन्मी—
साधक विश्वामित्र।
विश्वामित्र ने राज्य, वैभव, राजसी सुख—सब कुछ त्याग दिया।
नंगे पाँव, जटाजूट बाँधकर तप की कठिन राह पर निकल पड़े।
उनके मन में एक ही विचार था—
“मैं ब्रह्मर्षि बनूँगा।
वशिष्ठ के समान, उनकी समकक्ष शक्ति प्राप्त करूँगा।
और यदि उनसे भी महान बनूँ—तो यह मेरी तप की सफलता होगी।”
उन्होंने हिमालय, विंध्य और निर्जन अरण्यों में वर्षों तक कठोर तप किया—
कभी जल, कभी पत्ते, कभी वायु भी त्यागकर।
देवताओं का ध्यान आकर्षित हुआ।
इंद्र भयभीत होने लगा—
“यदि यह क्षत्रिय ब्रह्मर्षि पद पा गया, तो ब्रह्मांड का संतुलन बिगड़ जाएगा।”
इंद्र ने अप्सरा मेनका को भेजा।
मेनका का सौंदर्य दिव्य था।
विश्वामित्र तपमग्न थे, पर मेनका की उपस्थिति से उनका तप भंग हो गया।
दोनों ने वर्षों साथ बिताए और उनकी एक पुत्री उत्पन्न हुई—शकुंतला, जो आगे चलकर राजा भरत की माता बनी (जिसके नाम पर भारत का नाम “भरत-varsh” पड़ा)।
किंतु जब विश्वामित्र को अपनी भूल का आभास हुआ, तो वे मेनका को छोड़कर फिर तप के लिए निकल पड़े।
उनका हृदय अब और कठोर, और दृढ़ था—
वे जानते थे कि यह उनका पहला पतन था।
विश्वामित्र ने दूसरे चरण का तप शुरू किया—पहले से भी कठिन।
इंद्र फिर भयभीत हुए और अप्सरा रंभा को भेजा।
लेकिन इस बार विश्वामित्र धोखे को समझ गए—
उन्होंने क्रोध में आकर रंभा को शाप दे दिया—
“तू पत्थर बन जाए!”
रंभा वहीं शिला बन गई।
परंतु इसी क्षण विश्वामित्र समझ गए कि
क्रोध भी तपसाधक के लिए उतना ही बड़ा शत्रु है जितना काम।
अब उन्हें अपनी ही त्रुटि का गहरा पश्चाताप हुआ।
उन्होंने प्रण लिया—
“अब मैं क्रोध, काम, लोभ—सबका अंत करूँगा।
ब्रह्मज्ञान ही मेरा एकमात्र लक्ष्य है।”
विश्वामित्र ने वर्षों तक अग्नि की ज्वालाओं के बीच तप किया।
सूर्य को साक्षी मानकर, वायु को भोजन बनाकर।
इस तप से प्रकृति भी विचलित होने लगी—
वर्षा बंद होने लगी, भूमि तपने लगी।
देवताओं ने प्रजापति से प्रार्थना की—
“तप से संसार जल रहा है, इन्हें वर दे दीजिए।”
विश्वामित्र को राजर्षि की उपाधि दी गई।
पर उन्होंने कहा—
“मुझे ब्रह्मर्षि-पद चाहिए, उससे कम कुछ भी नहीं।”
विश्वामित्र अब इतना स्थिर हो चुके थे कि देवों की कोई परीक्षा, अप्सराओं का कोई आकर्षण, कोई शक्ति उनके मन को हिला नहीं पा रही थी।
उन्होंने महीने-महीने अन्न-जल त्यागा।
फिर वर्षों तक पूर्ण मौन और समाधि में।
सरीसृप, हिंसक पशु, आँधियाँ—कुछ भी उन्हें विचलित न कर सका।
उनकी तप-तेज की ऊष्मा से देवलोक तक प्रकाश फैलने लगा।
एक समय ऐसा आया कि ब्रह्मा स्वयं उनके सामने प्रकट हुए—
“हे विश्वरथ, अब तुमने वह सब जीत लिया है जो मनुष्य के लिए असम्भव माना जाता है।
तुम अब ब्रह्मर्षि हो।”
पर विश्वामित्र ने कहा—
“जब तक ऋषि वशिष्ठ मुझे यह पद स्वीकार नहीं करेंगे, तब तक मैं इसे योग्य नहीं मानूँगा।”
विश्वामित्र वशिष्ठ के पास गए।
वशिष्ठ ने तप के तेज से तप्त, शांत, पूर्णत: निर्मल विश्वामित्र को देखकर कहा—
“हे विश्वरथ, आज तुम वही हो जिसकी साधना को देवता भी प्रणाम करते हैं।
मैं तुम्हें ब्रह्मर्षि मानता हूँ।”
यह वाक्य सुनते ही विश्वामित्र की साधना पूर्ण हुई।
अब वे राजर्षि या ऋषि नहीं—
ब्रह्मर्षि विश्वामित्र थे।
विश्वामित्र का साहित्यिक और आध्यात्मिक योगदान
1. ऋग्वेद के मंत्रों की रचना
विश्वामित्र ने ऋग्वेद के तृतीय मंडल के अधिकांश सूक्तों की रचना की।
इसी मंडल में आता है—
गायत्री मंत्र
(“ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं…”)
हालाँकि इस मंत्र के कर्ता को कभी-कभी प्रजापति या सविता माना जाता है, पर इसकी रक्षा, इसकी परम्परा और इसका विस्तार विश्वामित्र ने किया।
2. रामायण में योगदान
विश्वामित्र ने
राम-लक्ष्मण को दिव्य अस्त्र-शस्त्र दिए
मंत्र, ब्रह्मज्ञान, और युद्धकला सिखाई
उन्हें ताड़का-वध के लिए तैयार किया
मिथिला लेकर गए जहाँ राम-सीता का विवाह हुआ
3. त्रिशंकु स्वर्ग
उन्होंने त्रिशंकु को जीवित रहते स्वर्ग में पहुँचाने का प्रयास किया और
त्रिशंकु-स्वर्ग की रचना कर डाली—
यह तप द्वारा सृष्टि निर्माण की क्षमता का अद्भुत उदाहरण है।
4. अनेक राक्षसों का संहार
उनके मार्गदर्शन में राम ने सुबाहु का वध किया, मारीच को भगाया।
विश्वामित्र स्वयं भी कई युद्धों में संलग्न रहे।
मृत्यु और अंतिम अवस्था
ब्रह्मर्षि बनने के बाद विश्वामित्र का हृदय पूर्णत: शांत हो गया था।
वह अब किसी राज्य का, किसी पद का, किसी वंश का नहीं—
केवल धर्म के सेवक बन चुके थे।
उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक
साधना
ऋषियों को शिक्षा
राजाओं को दिशा
और समाज को धर्म का मार्ग
प्रदान किया।
उनका देहावसान समाधि में हुआ।
जिस जंगल में उन्होंने पहला तप किया था, वहीं उन्होंने अंतिम श्वास ली।
उनका अंत उतना ही शांत था जितना उनका अंतर्जगत—
वे शरीर छोड़कर उसी ब्रह्म-तेज में लीन हो गए जो उनके जीवन का लक्ष्य था।
विश्वामित्र का संदेश
उनकी पूरी कथा एक ही सूत्र में समाती है—
“जन्म नहीं, तप—मनुष्य को उस ऊँचाई पर ले जाता है जहाँ देवताओं के लक्ष्य भी धुंधले पड़ जाएँ।”
राजा से ऋषि, ऋषि से ब्रह्मर्षि—
यह यात्रा केवल विश्वामित्र की नहीं,
यह हर मनुष्य की संभावनाओं का प्रतीक है।
Quick Summary / Highlights:
- विश्वामित्र — त्रेतायुग में जन्मे कूशिक वंश के राजकुमार विश्वरथ से ब्रह्मर्षि तक की यात्रा।
- वशिष्ठ आश्रम की घटना ने उन्हें राज्य त्यागने और तप की ओर प्रेरित किया।
- मेनका और रंभा की परीक्षाओं से उन्होंने काम और क्रोध पर विजय पाई।
- गायत्री मंत्र का संरक्षण, राम-लक्ष्मण को प्रशिक्षण और त्रिशंकु-स्वर्ग जैसी कथाएँ उनके योगदान का भाग हैं।
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FAQ — अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
1. विश्वामित्र कौन थे और उनका महत्व क्या है?
विश्वामित्र त्रेतायुग के महान ऋषि थे, जिनकी यात्रा राजा से ब्रह्मर्षि बनने तक प्रेरणादायक है। उन्होंने तप, साहित्यिक योगदान और धर्म की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. क्या विश्वामित्र ने गायत्री मंत्र रचा?
पारम्परिक मान्यताओं में गायत्री मंत्र का संरक्षण और परम्परा विश्वामित्र से जुड़ी मानी जाती है; उन्होंने तृतीय मंडल के कई सूक्तों का संरक्षण/विकास किया।
3. विश्वामित्र का रामायण में क्या योगदान था?
उन्होंने राम-लक्ष्मण को अस्त्र-शस्त्र, मंत्र और ब्रह्मज्ञान सिखाया तथा ताड़का-वध आदि में मार्गदर्शन दिया।
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