योग केवल अभ्यास नहीं, जीवन-दृष्टि है
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य को स्मरण कराने आया हूँ जिसे अक्सर आसन, प्राणायाम और समय-सारिणी में सीमित कर दिया गया है — योग केवल अभ्यास नहीं, जीवन-दृष्टि है। योग कोई एक घंटे का कार्यक्रम नहीं, न ही शरीर को मोड़ने की कला मात्र है। योग वह दृष्टि है जिससे जीवन देखा, समझा और जिया जाता है। योग वह चेतना है जो मनुष्य को खंडों में नहीं, समग्रता में जीना सिखाती है।
योग का मूल अर्थ है — जोड़। पर यह जोड़ केवल देह और श्वास का नहीं, मन और विवेक का, कर्म और करुणा का, इच्छा और संयम का, आत्मा और परमात्मा का है। जब यह जोड़ जीवन में उतरता है, तब योग अभ्यास से आगे बढ़कर स्वभाव बन जाता है। तब मनुष्य जो सोचता है, वही बोलता है; जो बोलता है, वही करता है; और जो करता है, वही बन जाता है। यही योग की परिपक्व अवस्था है।
यदि योग केवल अभ्यास होता, तो वह चटाई पर शुरू होकर चटाई पर ही समाप्त हो जाता। पर योग जीवन-दृष्टि है, इसलिए वह उठते समय भी साथ रहता है, चलते समय भी, बोलते समय भी, और निर्णय लेते समय भी। योग सिखाता है कि हर क्षण कैसे उपस्थित रहा जाए। जब मनुष्य वर्तमान में उपस्थित होता है, तभी वह संतुलित होता है। और संतुलन ही योग का प्राण है।
योग का पहला पाठ शरीर से नहीं, वृत्ति से शुरू होता है। यम-नियम केवल नियम नहीं, वे जीवन की शुद्धि हैं। अहिंसा केवल किसी को चोट न पहुँचाना नहीं, बल्कि अपने विचारों में भी हिंसा न रखना है। सत्य केवल शब्दों की ईमानदारी नहीं, बल्कि अपने ही अंतःकरण से छल न करना है। अस्तेय केवल चोरी न करना नहीं, बल्कि समय, ध्यान और विश्वास की चोरी से भी बचना है। ब्रह्मचर्य केवल संयम नहीं, ऊर्जा का सही प्रवाह है। अपरिग्रह केवल कम रखना नहीं, बल्कि अधिक की भूख से मुक्त होना है। जब ये जीवन में उतरते हैं, तभी योग साँसों में बसता है।
योग जीवन-दृष्टि इसलिए है क्योंकि वह हमें प्रतिक्रिया से उत्तरदायित्व की ओर ले जाता है। प्रतिक्रिया तात्कालिक होती है, उत्तरदायित्व सजग। योगी परिस्थितियों से भागता नहीं, उनसे लड़ता नहीं, बल्कि उन्हें समझकर सही उत्तर देता है। यही कारण है कि योगी का मन स्थिर रहता है। स्थिरता जड़ता नहीं है; स्थिरता वह केंद्र है जहाँ से सही गति निकलती है।
योग हमें यह भी सिखाता है कि सुख और दुख दोनों में समभाव कैसे रखा जाए। यह समभाव उदासीनता नहीं, बल्कि गहरी समझ का फल है। जो समझ जाता है कि परिवर्तन प्रकृति का नियम है, वह परिवर्तनों से भयभीत नहीं होता। योग जीवन को स्वीकार करना सिखाता है — जैसा है, वैसा — और साथ ही उसे बेहतर बनाने का विवेक भी देता है। स्वीकार और परिवर्तन का यह संतुलन ही योग की दृष्टि है।
जब योग जीवन-दृष्टि बनता है, तब भोजन भी योग हो जाता है, क्योंकि तब हम आवश्यकता से खाते हैं, लालसा से नहीं। तब वाणी भी योग हो जाती है, क्योंकि तब शब्द चोट नहीं करते, दिशा देते हैं। तब कर्म भी योग हो जाता है, क्योंकि तब हम फल के भय से नहीं, कर्तव्य के प्रेम से काम करते हैं। तब विश्राम भी योग होता है, क्योंकि तब हम भागकर नहीं, समझकर रुकते हैं।
योग हमें भीतर की सफ़ाई सिखाता है। जैसे शरीर में विष जमा हो जाए तो रोग होता है, वैसे ही मन में अविवेक जमा हो जाए तो अशांति होती है। योग जागरूकता के माध्यम से इस विष को बाहर निकालता है। जब जागरूकता बढ़ती है, तब क्रोध ढीला पड़ता है, भय गलता है, अहंकार नरम होता है। यह परिवर्तन किसी ज़ोर-जबरदस्ती से नहीं, समझ से होता है।
योग जीवन-दृष्टि इसलिए भी है क्योंकि वह हमें जोड़ता है — स्वयं से, दूसरों से, प्रकृति से। योगी प्रकृति का शोषण नहीं करता, वह उसका सम्मान करता है, क्योंकि वह जानता है कि जो बाहर है, वही भीतर है। जब भीतर-बाहर की यह दूरी मिटती है, तब करुणा स्वाभाविक हो जाती है। करुणा कोई नैतिक बोझ नहीं, वह योग का सहज फल है।
आज के समय में योग को स्वास्थ्य तक सीमित कर देना एक अधूरा सत्य है। स्वास्थ्य योग का फल है, लक्ष्य नहीं। लक्ष्य है — सम्यक दृष्टि। जब दृष्टि ठीक होती है, तब स्वास्थ्य, शांति और संतुलन अपने आप आते हैं। योग जीवन-दृष्टि बनते ही जीवन सरल हो जाता है; सरलता आते ही आनंद स्वाभाविक हो जाता है।
अंततः योग किसी मुद्रा का नाम नहीं, यह जीवन की मुद्रा है। यह खड़े होने, झुकने या बैठने का तरीका नहीं, बल्कि होने का तरीका है। जब जीवन में योग उतरता है, तब मनुष्य भीड़ में भी अकेला नहीं होता और अकेले में भी खाली नहीं होता। वह संसार में रहते हुए भी संसार से बँधता नहीं।
इसीलिए स्मरण रहे — योग केवल अभ्यास नहीं, जीवन-दृष्टि है। जो इसे अभ्यास तक सीमित रखेगा, वह लाभ पाएगा; और जो इसे जीवन बना लेगा, वह मुक्त हो जाएगा।
लेखक / Writer : तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By : सनातन संवाद
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