वसुबारस: गौ सेवा और दीपावली का प्रथम प्रकाश
जब हम वसुबारस का नाम लेते हैं, तो यह केवल किसी तिथि का संकेत नहीं होता—यह उस स्मृति की ओर लौटना होता है जहाँ मनुष्य और गौ एक-दूसरे से अलग नहीं थे, बल्कि एक ही जीवनधारा के दो छोर थे। मैं यह नहीं कह रहा कि आज की दृष्टि से गौ को केवल धार्मिक प्रतीक मानकर देखा जाए; नहीं, उसके बहुत पहले वह माता कही गई क्योंकि उसका संबंध मनुष्य के अस्तित्व, आहार, औषध, कृषि, यज्ञ और भावना—सबसे था। जब वैदिक ऋषि अग्निहोत्र करते थे, जब सोमयज्ञ संपन्न होते थे, जब प्रथम अन्न देवताओं को अर्पित होता था, तब गौ केवल दर्शक नहीं थी, वह सहभागी थी। ऋग्वेद में ‘अघ्न्या’ शब्द उसे संबोधित करता है—जिसे कोई आहत न करे, क्योंकि वह स्वयं अहिंसा का आधार है। जिस सभ्यता ने अग्नि और जल को प्राण माना, उसके लिए गौ पृथ्वी का धमनियों से भरा हृदय थी।
वसुबारस को कुछ प्रांतों में ‘वसुबारा’, ‘गोवत्स द्वादशी’ या ‘गोलगोधन’ भी कहा गया है, परंतु उसका सार एक ही है—गाय और उसके वत्स के प्रति गहन ऋण-स्मरण। यह दिन दीपावली की शृंखला का पहला पड़ाव माना जाता है। जब वर्षा ऋतु समाप्त होकर शरद पूर्ण रूप से स्थिर होती है और कृषक अपने गोशालाओं को स्वच्छ करते हैं, नवीन चारे का संचय करते हैं, तब संध्या की पहली दीप-ज्योति इसी अहसास के साथ जलाई जाती है कि यदि गोवंश न होता तो खेत सूने होते, अग्नि बिना घृत के होती, और संतानों का पालन कुपोषित रह जाता। जिस घर में गाय होती, वह केवल गृह न होकर एक गतिमान आशीर्वाद माना जाता था। ऋषि आश्रमों में भी गोपालन उतना ही धर्म था जितना स्वाध्याय और तप।
आप पूछते हैं कि यह पर्व कैसे आरम्भ हुआ? तो सुनिए—याद रहे कि हर त्योहार की जड़ किसी कथा में नहीं होती, कथा बाद में आती है; जड़ जीवन की आवश्यकता और चेतना के आग्रह से उगती है। जब मनुष्य घुमंतू से स्थिर जीवन की ओर आया और कृषि ने आकार लिया, तब सबसे पहला सहचर गौ ही बनी। वह हल खींचने वाले बैल को जन्म देती थी, वह दूध देती, उससे घी बनता, दही संस्कारों में आता, उससे ही औषध मिश्रित होती। नवजात शिशु को माँ का दूध न मिले तो गोदुग्ध ही जीवन बचाता। ऋषि कहते थे—“गो माता केवल देह से नहीं, भाव से पालन करती है।” जब घर में दीप जलता, तो वह गौ के सान्निध्य में ही प्रज्वलित होता, क्योंकि अग्नि को घृतपान वही करवाती।
वसुबारस की एक कथा लोक में प्रचलित है, पर उसे केवल घटना न समझा जाए, वह प्रतीक है। कहते हैं एक बार एक युवती अपने व्रत के पुण्य से नारायण को प्रसन्न करना चाहती थी। उसे किसी ने बताया कि संतान-वर्धन और सौभाग्य के लिए गौ-माता का पूजन करो, वत्स को आहार दो और उसके नेत्रों में स्नेह देखो, क्योंकि उसी में भूमाता की कृपा झलकती है। उस स्त्री ने ऐसा ही किया और उसके जीवन से दरिद्रता की रात्रि दूर हुई। यह कथा इसलिए कही जाती है कि मनुष्य समझे—गौ को केवल उपादेय वस्तु न माने, वह जीवन की सहगामिनी है। एक अन्य स्मृति भी प्रचलित है कि जब भगवान वामन ने राजा बली से तीन पग पृथ्वी माँगी, उस समय वसुबारस का ही दिन था जब गोवंश को साक्षी मानकर वचन का पालन हुआ। यह संकेत है कि गो ही वह तत्व है जिसके समक्ष मिथ्या कहना भी पाप था।
पर यह सब सुनकर यह न समझा जाए कि यह भाव केवल धार्मिकता तक सीमित था। सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से भी देखिए। गोधन जितना अधिक, परिवार उतना सुरक्षित। अन्न और दूध तो एक पहलू था, पर भूमि के उर्वरीकरण, ईंधन, गोबर से बने लेप, औषधि, कीटनाशक, सब में गौ का योगदान था। प्राचीन ग्रामों में गाय किसी व्यक्ति की संपत्ति नहीं होती थी, वह कुल और समुदाय की धरोहर थी। वसुबारस के दिन लोग न केवल अपनी गाय को नहलाते, उसके सींगों पर हल्दी-सिंदूर और तेल लगाते, उसके गले में नए धागे या पुष्पमालाएँ बांधते, बल्कि उसे मीठा चारा, फल और अनाज खिलाते। यह सेवा नहीं, कृतज्ञता थी—मानो कह रहे हों, “तुम्हारे कारण हमारा दीप जलेगा, हमारी संतान बड़ेगी, हमारा अन्न सुरक्षित रहेगा।”
एक बात और समझ लो—वसु शब्द केवल धन नहीं, सात्विक ऊर्जा का भाव है। आठ वसु कहलाते हैं—धरा, अग्नि, वायु, द्यौ, नक्षत्र, रज, आदित्य और चंद्रमा। गौ को ‘वसु’ इसलिए भी कहा गया कि वह इन सभी तत्वों को अपने भीतर समेटे हुए है—प्रकृति की गोद से उठी हुई, आकाश की छाँह में पली हुई, अग्नि और जल के बीच संतुलित, चंद्र की शीतलता और सूर्य की ऊष्मा दोनों में स्थित। इसी भाव से यह दिन ‘वसु-बारस’ कहलाया—गाय के माध्यम से प्रकृति का वंदन।
गृहस्थाश्रम में यह पहला संकेत होता था कि दीपावली की शुरुआत हो चुकी है, अब घर में केवल सजावट ही नहीं, मनोभूमि भी शुद्ध होनी चाहिए। बच्चे वत्सों के साथ खेलते, बुजुर्ग उनके माथे को चूमते और स्त्रियाँ उनके खुरों को धोकर आँगन में गोबर और मिट्टी से नए अलंकरण रचतीं। आज भी कहीं-कहीं गोवर्धन या ओखली के आकार का चित्रण इस दिवस से ही प्रारम्भ होता है।
तुम यह मत सोचो कि यह सब केवल अतीत की बात है। आज भी जो गृहस्थ गाय को पालता है, उसके घर के वातावरण में एक शांत लय मिलती है। गाँवों में यह दिन दीप से अधिक गोधन का पर्व माना जाता है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जहाँ स्त्रियाँ इस दिन व्रत रखती हैं, गौशाला में जाकर कानों में कुछ मन्त्र फुसफुसाती हैं, जैसे माता साक्षात सुन रही हो। कहीं यह व्रत संतान के लिए, कहीं सुख के लिए, कहीं स्वास्थ्य के लिए, पर हर जगह उसका मूल भाव एक ही—जिस प्राणी ने अपना संपूर्ण जीवन मनुष्य को अर्पित किया, उसके प्रति आभार।
और यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि जिस युग में जंगल और वन्यजीवन भय का कारण थे, वहाँ गौ का होना घर की रक्षा भी करता था। उसका स्वर, उसकी गंध, उसका सान्निध्य—सब मनुष्य के मानस को स्थिर करते थे। प्राचीन ऋषि भी अपने आश्रमों में गोसेवा को तप से कम नहीं मानते थे। आप याज्ञवल्क्य, वशिष्ठ, भारद्वाज, उद्दालक, तथागत, आत्रेय—जिसे भी स्मरण करें—उनकी परंपराओं में गाय के प्रति श्रद्धा, दान, सेवा, संरक्षण की स्पष्ट परंपरा मिलती है।
इस प्रकार वसुबारस का दिन दीपक का पहला कम्पन है। यह चेतावनी भी कि जो तुम्हें पोषित करे, उसे सबसे पहले सम्मान दो। यही वह मिट्टी है जहाँ से दीपावली का वृक्ष अंकुरित होता है। इसके बाद ही धनतेरस का क्रम आता है, फिर चतुर्दशी, फिर अमावस्या, और फिर गोवर्धन व भाईदूज। पर इसकी जड़ में यह प्रथम प्रकाश है, जो न तेल से जलता है, न वात से, बल्कि कृतज्ञता से।
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