भागीरथ द्वारा गंगाजी को पृथ्वी पर लाने की पवित्र कथा (गंगावतरण)
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी। आज मैं आपको एक ऐसी दिव्य कथा सुनाने जा रहा हूँ जिसने न केवल एक वंश का उद्धार किया, बल्कि पूरी पृथ्वी के लिए पवित्रता, शुद्धि और तप का संदेश स्थापित किया – यह है भागीरथ द्वारा गंगाजी को पृथ्वी पर लाने की कथा (गंगावतरण)।
राजा सगर, अश्वमेध यज्ञ और सगरपुत्रों का भस्म होना
पुराणों और वाल्मीकि रामायण के अनुसार, सूर्यवंशी राजा सगर ने एक महान अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था। यज्ञ के नियम के अनुसार यज्ञ–घोड़ा स्वतंत्र रूप से पृथ्वी पर घूमता रहता था और जहाँ उसे कोई रोकता या बाँधता, वहाँ युद्ध की स्थिति उत्पन्न होती।
इंद्र को यह यज्ञ अच्छा नहीं लगा, उन्हें भय हुआ कि कहीं सगर की कीर्ति और शक्ति देवताओं पर भारी न पड़ जाए। इसलिए इंद्र ने यज्ञ का घोड़ा चुराकर कपिल मुनि के आश्रम के समीप ले जाकर बाँध दिया।
राजा सगर के साठ हज़ार पुत्र उस घोड़े की खोज में निकल पड़े। घूमते-घूमते वे अंततः कपिल मुनि के आश्रम तक पहुँचे। उन्होंने घोड़े को वहाँ बँधा देखा और बिना सोचे–समझे, क्रोध में भरकर कपिल मुनि पर ही चोरी का आरोप लगाने लगे।
कपिल मुनि महान योगी थे। उन्होंने कोई शस्त्र नहीं उठाया, केवल अपनी तेजस्वी दृष्टि से उन पर दृष्टिपात किया, और सगरपुत्र वहीं भस्म हो गए। उनकी देह तो भस्म हो गई, लेकिन उनका पितृ–ऋण और सूक्ष्म देह अशांत ही रह गई।
सगरपुत्रों के मोक्ष के लिए गंगावतरण की आवश्यकता
समय के साथ यह रहस्य ज्ञात हुआ कि सगरपुत्रों का उद्धार और उनका पितृ–ऋण तभी समाप्त होगा जब उन पर गंगाजी का पवित्र जल गिरेगा। किंतु उस समय गंगा केवल स्वर्गीय लोकों में प्रवाहित थीं, पृथ्वी पर उनका आविर्भाव नहीं हुआ था।
राजा सगर के बाद उनके वंश में क्रमशः –
- अंशुमान,
- फिर दिलीप,
- और फिर राजा भगीरथ हुए।
जब भगीरथ को यह पता चला कि उनके पूर्वज सगरपुत्रों की आत्मा अभी तक शांत नहीं हुई हैं और केवल गंगा के पृथ्वी पर अवतरण से ही उनका उद्धार संभव है, तब उन्होंने निश्चय किया कि वे किसी भी प्रकार गंगा को पृथ्वी पर लाकर रहेंगे।
राजा भगीरथ की तपस्या और ब्रह्मा जी से वरदान
राजा भगीरथ ने राज–सुख, वैभव और सुविधाओं को पीछे छोड़कर कठोर तपस्या का मार्ग चुना। वे हिमालय में जाकर ब्रह्मा जी की आराधना में लीन हो गए।
दीर्घकालीन तप से प्रसन्न होकर ब्रह्मा प्रकट हुए और भगीरथ से वरदान माँगने के लिए कहा। भगीरथ ने अत्यंत विनम्रता से निवेदन किया कि –
“हे भगवन्! मेरी यही प्रार्थना है कि माँ गंगा पृथ्वी पर अवतरित हों, जिससे मेरे पूर्वज सगरपुत्रों का उद्धार हो और समस्त लोकों का कल्याण हो।”
ब्रह्मा जी ने उनकी प्रार्थना स्वीकार तो कर ली, परंतु एक महत्त्वपूर्ण बात बताई –
- गंगा का वेग अत्यंत प्रचंड और दिव्य है,
- यदि वे सीधे पृथ्वी पर उतरेंगी, तो पृथ्वी उनके आघात को सह नहीं पाएगी,
- इसलिए पहले ऐसे देव की आवश्यकता है जो गंगा के प्रपात को सहन कर सके।
अब भगीरथ के सामने अगला चरण स्पष्ट था – उन्हें ऐसे देव की आराधना करनी थी जो गंगा के वेग को धारण कर सकें।
भगवान शिव की आराधना और गंगाजी को जटाओं में धारण करने का वर
ब्रह्मा जी से संकेत मिलने के बाद भगीरथ ने अब भगवान शिव की आराधना का संकल्प लिया। वे पुनः कठोर तपस्या में लीन हो गए। इस बार उनके तप का लक्ष्य था –
“भगवान शिव से यह वर प्राप्त करना कि वे गंगा के प्रचंड प्रपात को अपनी जटाओं में धारण करें।”
दीर्घकालीन और अत्यंत कठिन तपस्या के बाद शिव प्रसन्न हुए और प्रकट हुए। भगीरथ ने विनम्रतापूर्वक प्रार्थना की –
“देवदेवेश! ब्रह्मा जी माँ गंगा को पृथ्वी पर भेजने को तैयार हैं, परंतु उनका वेग इतना प्रचंड है कि केवल आप ही उसे संभाल सकते हैं। आप कृपा कर गंगा को अपनी जटाओं में धारण कर लें और फिर धीरे-धीरे उन्हें पृथ्वी पर छोड़ें, ताकि गंगावतरण संभव हो सके।”
भगवान शिव ने भगीरथ के इस दिव्य और लोक–कल्याणकारी कार्य को स्वीकार किया।
स्वर्ग से गंगा का प्रपात और शिव–जटा में अवतरण
नियत समय आने पर ब्रह्मा जी ने स्वर्ग से गंगा को मुक्त किया। गंगाजी एक विराट, अत्यंत प्रबल धारा के रूप में शिव के ऊपर गिरीं।
गंगा अपने दिव्य वेग और महिमा पर गर्वित भी थीं। वे एक ही झटके में तीनों लोकों को भेदती हुई निकल जाना चाहती थीं। किंतु भगवान शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में ही जकड़ लिया।
अब गंगा भीतर ही भीतर शिव की जटाओं में उलझकर रह गईं और बाहर नहीं निकल पा रही थीं। यह रूपक बताता है कि असीम शक्ति को भी संतुलन और नियंत्रण की आवश्यकता होती है, और यही संतुलन शिव की जटाएँ देती हैं।
भगीरथ ने पुनः शिव की स्तुति की, और प्रार्थना की कि वे गंगा को नियंत्रित वेग से पृथ्वी पर बहने दें। तब भगवान शिव ने करुणा कर अपनी जटाओं की एक लट खोल दी, और उसी से गंगा की शुभ्र धाराएँ पृथ्वी की ओर प्रवाहित होने लगीं।
गंगा का पृथ्वी पर प्रवाह और तीर्थों की रचना
अब गंगा भगीरथ के पीछे-पीछे चलती हुई पृथ्वी पर प्रवाहित होने लगीं। भगीरथ आगे-आगे रथ पर, और गंगा उनकी रथयात्रा का अनुसरण करती हुई –
- पर्वतों से होती हुई,
- मैदानों को सींचती हुई,
- कठिन मार्गों, कंदराओं, घाटियों से गुजरती हुई,
- समुद्र की दिशा में और फिर पाताल की ओर बढ़ने लगीं।
जहाँ-जहाँ से गंगा गुज़रीं, वे स्थान तीर्थ बनते गए। गंगा का हर मोड़, हर घाट, हर तट पवित्र स्मृति का स्थल बन गया।
सगरपुत्रों का मोक्ष और पितृ–ऋण का निर्वाह
अंततः वह पवित्र स्थल आया जहाँ सगरपुत्रों की भस्म और सूक्ष्म देह स्थित थी। जैसे ही गंगा का पावन जल उन पर गिरा –
- उनका पितृ–ऋण समाप्त हुआ,
- उनकी अशांत सूक्ष्म देह को शांति मिली,
- और वे उच्च लोकों को प्राप्त हुए।
इस प्रकार गंगावतरण और सगरपुत्र–मोक्ष दोनों कार्य एक साथ सिद्ध हुए।
क्यों कहलाती है यह धारा “भागीरथी”?
क्योंकि यह अविरल धारा राजा भगीरथ के महाप्रयत्न का परिणाम है, इसलिए पृथ्वी पर अवतरित इस धारा को भागीरथी भी कहा गया। आगे चलकर यही गंगा विभिन्न नामों और धाराओं से बहती हुई भारतीय संस्कृति की जीवनरेखा बन गई।
आज भी “भागीरथ प्रयत्न” शब्द का अर्थ होता है –
- अत्यन्त कठिन,
- दीर्घकालीन,
- और लोक–कल्याण के लिए किया गया महान प्रयास।
इस कथा में –
- तप (भगीरथ की साधना),
- देव–कृपा (ब्रह्मा और शिव का आशीर्वाद),
- व्यवस्था (शिव द्वारा गंगा का संतुलित प्रवाह),
- और लोक–हित (सगरपुत्रों का मोक्ष और समस्त जगत का कल्याण)
इन चारों का अद्भुत और दिव्य समन्वय दिखाई देता है।
आधुनिक जीवन के लिए गंगावतरण कथा का संदेश
यह कथा केवल प्राचीन इतिहास नहीं, बल्कि आज के जीवन के लिए भी गहरा संदेश रखती है –
- तप और धैर्य: बड़े और लोक–हितकारी कार्य समय, धैर्य और साधना से ही सिद्ध होते हैं।
- विनम्रता और व्यवस्था: केवल शक्ति ही पर्याप्त नहीं, उसे संतुलित करने वाली शिव–जटा जैसी व्यवस्था भी ज़रूरी है।
- पितृ–ऋण और कृतज्ञता: अपने पूर्वजों, परंपराओं और संस्कृति के प्रति कृतज्ञ होना भी धर्म है।
- जल और पवित्रता: गंगा हमें स्मरण कराती हैं कि जल केवल प्राकृतिक संसाधन नहीं, बल्कि जीवन और शुद्धि का मूल है – इसकी रक्षा करना भी धर्म है।
स्रोत / ग्रंथ–संदर्भ
यह कथा मुख्य रूप से निम्न ग्रंथों में वर्णित मिलती है –
- वाल्मीकि रामायण – बालकाण्ड: सगर, अंशुमान, दिलीप और भगीरथ प्रसंग में गंगावतरण की विस्तृत कथा।
- श्रीमद्भागवत महापुराण – नवम स्कन्ध: सूर्यवंश के वर्णन में सगर, अंशुमान, दिलीप, भगीरथ तथा गंगावतरण का संक्षिप्त वर्णन।
लेखक / Writer
तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By
सनातन संवाद
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