नरसिंह भगवान के प्रकट होने की कथा | Narasimha Avatar & Prahlad–Hiranyakashipu Story
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं आपको नरसिंह भगवान के प्रकट होने की कथा सुना रहा हूँ –
बहुत प्राचीन समय में कश्यप ऋषि की पत्नी दिति से एक अत्यंत तेजस्वी असुर–पुत्र उत्पन्न हुआ – हिरण्यकश्यपु। उसका भाई हिरण्याक्ष पहले ही विष्णु के वराह अवतार द्वारा मारा जा चुका था, इसलिए हिरण्यकश्यपु के मन में विष्णु के प्रति गहरा द्वेष था। उसने संकल्प लिया कि वह इतना शक्तिशाली बनेगा कि देवताओं को, विशेषकर विष्णु को, पराजित कर सके। वह तप करने के लिए मंदर पर्वत पर चला गया और अत्यंत कठोर तपस्या की।
हिरण्यकश्यपु ने वर्षों तक खड़े होकर, भुजाएँ उठाकर, प्रचंड तप किया। उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हुए और बोले कि वर माँगो। हिरण्यकश्यपु ने मृत्यु से सुरक्षा चाही। उसने क्रम से कहा कि उसे न कोई मनुष्य मारे, न कोई देव, न कोई पशु; न दिन में मारा जाए न रात में; न घर के अंदर न बाहर; न भूमि पर न आकाश में; न शस्त्र से, न अस्त्र से; न जीवित से, न निर्जीव से। ब्रह्मा ने कहा कि यह अमरत्व तो नहीं दे सकता, पर इन शर्तों के अनुसार वर दे देता हूँ। इस वर के प्रभाव से हिरण्यकश्यपु अत्यंत अभिमानी और अत्याचारी हो गया। उसने तीनों लोकों पर आधिपत्य जमा लिया और स्वयं को ईश्वर समान मानने लगा।
इसी हिरण्यकश्यपु के घर पुत्र जन्मा – प्रह्लाद। प्रह्लाद की माता कयाधु, जब गर्भवती थीं, तब देवता हिरण्यकश्यपु के भय से उन्हें ले जाना चाहते थे। मार्ग में नारद मुनि मिले। नारद ने कयाधु को अपने आश्रम में रखा और उस समय वे स्वयं भगवान विष्णु की भक्ति का उपदेश दे रहे थे। गर्भस्थ प्रह्लाद ने भी नारद के उपदेश को सुनकर भीतर ही भीतर विष्णु–भक्ति ग्रहण कर ली। इस प्रकार प्रह्लाद जन्म से ही विष्णु–भक्त बन गए।
जब प्रह्लाद बड़े होने लगे, तब हिरण्यकश्यपु ने उन्हें असुर–आचार्यों के पास शिक्षा के लिए भेजा। वहाँ उन्हें राजनीति, दुर्योजना, प्रजा पर शासन आदि का ज्ञान दिया जाता था। पर जब छुट्टी के समय प्रह्लाद से पूछा जाता कि उन्हें क्या अच्छा लगता है, तो वे कहते – “नारायण के नाम का कीर्तन, भगवद–भक्ति, ईश्वर–स्मरण।” वे अपने असुर–मित्रों को भी भगवान की भक्ति का उपदेश देने लगे। आचार्यों ने यह सुनकर चिंतित होकर हिरण्यकश्यपु को बताया कि प्रह्लाद तो विष्णु–भक्ति की बात करता है।
हिरण्यकश्यपु ने क्रोध में प्रह्लाद को अपने सामने बुलवाया और पूछा – “तुझे इतनी शक्ति किसने दी कि तू मेरे आदेश के विरुद्ध विष्णु की महिमा कर रहा है?” प्रह्लाद ने शांत भाव से उत्तर दिया – “पिता, यह शक्ति वही देता है जो आपको भी शक्ति देता है – वही भगवान विष्णु। वे सर्वत्र हैं।” हिरण्यकश्यपु को यह उत्तर सहन नहीं हुआ। उसने कई उपाय से प्रह्लाद को मारने का प्रयास किया – हाथियों से कुचलवाना, नागों के बीच डालना, ऊँचे पर्वत से फेंकना, विष देना, अग्नि में डालना – पर हर बार भगवान ने प्रह्लाद की रक्षा की।
एक प्रसिद्ध प्रसंग में हिरण्यकश्यपु की बहन होलिका, जिसे अग्नि से अजर–अमर होने का वर मिला था, प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठी। उद्देश्य था – प्रह्लाद जल जाए और वह सुरक्षित रहे। पर यह वर केवल धर्म–अनुसार कार्य में फलित होना था। प्रह्लाद तो भगवद्भक्त थे, अतः अग्नि में भी उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ और होलिका स्वयं जलकर भस्म हो गई। यह घटना आगे चलकर होली पर्व का मूल–कारण बताई जाती है।
अंततः एक दिन हिरण्यकश्यपु ने प्रह्लाद से क्रोध में पूछा – “तू कहता है कि तेरा विष्णु सर्वत्र है, क्या वह इस खंभे में भी है?” प्रह्लाद ने निश्चय के साथ कहा – “हाँ, भगवान सर्वत्र हैं, इस खंभे में भी।” हिरण्यकश्यपु ने क्रोध में आकर अपने गदा या मुक्के से उस खंभे पर प्रहार किया। उस क्षण खंभे से अत्यंत भयावह, अद्भुत और अलौकिक गर्जना हुई।
उस खंभे से प्रकट हुए स्वयं नरसिंह भगवान – न पूर्ण मनुष्य, न पूर्ण सिंह – ऊपरी भाग सिंह का, निचला भाग मानव का। वे न देव थे, न पशु, न साधारण मनुष्य – ठीक वैसा जो ब्रह्मा के वरदान की किसी भी शर्त में सीधे-सीधे नहीं आता था। उनका प्रकट होना ही यह सिद्ध कर रहा था कि ईश्वर किसी भी वरदान के बंधन में नहीं, बल्कि वे धर्म की रक्षा के लिए मार्ग के पार भी रूप ले सकते हैं।
नरसिंह ने हिरण्यकश्यपु को पकड़ लिया। वह समय न दिन था, न रात – संध्या का समय था। वे उसे न घर के अंदर ले गए न पूरी तरह बाहर – घर की देहरी / चौखट पर, जो अंदर और बाहर के बीच की सीमा है। उन्होंने न जमीन पर बैठाकर उसे मारा, न आकाश में; वे स्वयं सिंह–मानव रूप में अपनी जाँघों पर हिरण्यकश्यपु को उठाकर बैठ गए। न किसी शस्त्र से वार किया, न परंपरागत अस्त्र से – उन्होंने अपने नखों से, जो न जीवित प्राणी हैं न निर्जीव लोहे–पत्थर जैसे, हिरण्यकश्यपु के पेट को फाड़ दिया। इस प्रकार ब्रह्मा का दिया हुआ वर भी टूटा नहीं, परंतु ईश्वर ने अधर्म का नाश कर दिया। यही कारण है कि यह अवतार “उग्र” और “अद्भुत” दोनों कहा जाता है।
नरसिंह भगवान का क्रोध हिरण्यकश्यपु वध के बाद भी शांत नहीं हुआ। देवता भयभीत हो गए, कोई भी उनके पास जाने का साहस न कर पाया। तब प्रह्लाद आगे बढ़े और भगवान के चरणों में गिर पड़े। उन्होंने स्तुति की, प्रार्थना की। नरसिंह ने प्रेम से प्रह्लाद को उठाया, उन्हें आशीर्वाद दिया और कहा कि वे धर्मपूर्वक राज्य करें। उन्होंने यह भी वर दिया कि प्रह्लाद के वंश में भक्ति बनी रहेगी। इस प्रकार एक बालक–भक्त की निष्ठा के सामने समूचा असुर–साम्राज्य परास्त हो गया।
नरसिंह–अवतार की यह कथा स्पष्ट दिखाती है कि ईश्वर का नियम है – “धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे” – वे बार–बार धर्म की रक्षा के लिए अवतार लेते हैं। जब अहंकार इतना बढ़ जाता है कि वह ईश्वर को ही चुनौती दे, तब ईश्वर किसी भी रूप में, किसी भी मार्ग से सामने आते हैं। प्रह्लाद की कथा यह भी सिखाती है कि जब हृदय में सच्ची भक्ति हो, तो विश्व का कोई भी बल भक्ति को हिला नहीं सकता।
स्रोत / ग्रंथ–संदर्भ (Reference):
नरसिंह–अवतार और प्रह्लाद की कथा मुख्य रूप से –
- श्रीमद्भागवत महापुराण, सप्तम स्कन्ध (विशेषकर 7.2 से 7.10 तक के अध्यायों में हिरण्यकश्यपु, प्रह्लाद और नरसिंह अवतार का विस्तार से वर्णन)।
- विष्णु पुराण, प्रथम अंश (हिरण्यकश्यपु और प्रह्लाद प्रसंग)।
- संदर्भ रूप में महाभारत, शांति पर्व में भी विष्णु के नरसिंह रूप का उल्लेख मिलता है।
लेखक / Writer
तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By
सनातन संवाद
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