वामन अवतार और राजा बलि की कथा | Vamana Avatar Raja Bali Story in Hindi
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं आपको वामन अवतार और राजा बलि की कथा सुनाता हूँ –
बहुत समय पहले दैत्यराज महाबलि (राजा बलि) का सम्पूर्ण त्रिलोक पर राज्य था। वे असुरकुल में जन्मे थे, पर दान, सत्यवचन और यज्ञ आदि में भी बहुत अग्रणी थे। उनका गुरु शुक्राचार्य था। देवताओं पर असुरों की विजय हो चुकी थी और इंद्र अपना स्वर्गलोक खो चुके थे। देवगण दुःखी होकर भगवान विष्णु की शरण में पहुँचे और प्रार्थना की कि वे धर्म की रक्षा करें और इंद्र को पुनः पद दिलाएँ।
उसी समय अदिति (इंद्र की माता, कश्यप ऋषि की पत्नी) ने भी अपने पुत्रों की रक्षा के लिए व्रत और तपस्या की। विष्णु उनकी भक्ति से प्रसन्न हुए और उन्होंने वचन दिया कि वे स्वयं उनके पुत्र रूप में अवतार लेंगे। इसी संकल्प से भगवान विष्णु ने कश्यप और अदिति के घर में एक अत्यंत तेजस्वी वामन बालक के रूप में जन्म लिया। वे बौने ब्राह्मण–बालक के रूप में प्रकट हुए — दैत्यराज बलि के यज्ञ के समय यही रूप उनके जीवन और पूरे लोक–व्यवस्था का मोड़ बनता है।
उधर राजा बलि ने अपने पराक्रम और दानशीलता के बल पर एक भव्य अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया था। उनका यश चारों ओर फैल गया था — वे घोषणा करते थे कि जो भी याचक उनके यज्ञ में आएगा, वह खाली हाथ नहीं लौटेगा। देवताओं के गुरु बृहस्पति ने देवताओं से कहा कि अभी बलि सीधे युद्ध से नहीं जीता जा सकता, उन्हें उनकी ही धर्म–प्रियता और वचन–पालन से परखा जाएगा। भगवान विष्णु अब वामन ब्राह्मण के रूप में उस यज्ञ–मंडप की ओर चले।
जब वामन मुनि–बालक यज्ञ–स्थल पर पहुँचे, तो उनकी तेजस्विता, वाणी की मधुरता और ब्राह्मण रूप देखकर सब मंत्र–मु्ग्ध हो गए। राजा बलि स्वयं उठकर उनके चरणों पर झुके, आसन दिया और पूछा – “हे ब्राह्मण कुमार, आप कौन हैं, किस उद्देश्य से पधारे हैं? जो भी आप माँगेंगे, मैं अवश्य दूँगा।” वामन ने विनम्र स्वर में कहा – “मुझे न तो बहुत धन चाहिए, न राज्य; बस आप मुझे उतनी भूमि दान दें, जितनी मैं अपने तीन पगों से नाप लूँ।”
राजा बलि को यह माँग अत्यंत छोटी लगी। उन्होंने कहा – “तुम तो बालक हो, तीन पग भूमि में क्या होगा? मैं तुम्हें पूरे गाँव, नगर, सोना, गज, घोड़े सब दे सकता हूँ।” पर वामन ने कहा – “जो आदमी आवश्यकता से अधिक माँगता है, वह लालची हो जाता है। मुझे केवल तीन पग भूमि ही चाहिए।” राजा बलि मुस्कुराए और बोले – “अच्छा, जैसा तुम चाहो।” वे जलपात्र लेकर दान–संकल्प करने लगे।
तभी उनके गुरु शुक्राचार्य ने ध्यान से देखा और दिव्य ज्ञान से समझ लिया कि यह कोई साधारण बालक नहीं, स्वयं विष्णु हैं, जो देवों के हित के लिए वामन रूप में आए हैं। उन्होंने बलि को सावधान किया – “यह विष्णु हैं, तुम्हारा सर्वस्व छिन जाएगा, यह दान मत करो।” पर बलि ने उत्तर दिया – “यदि यह विष्णु हैं और मेरे द्वार पर याचक बनकर आए हैं, तो यह मेरे लिए सौभाग्य है। मैं दान से पीछे नहीं हटूँगा। यदि मेरे वचन से मेरा सब कुछ भी चला जाए, तब भी मैं अपना दिया हुआ वचन नहीं तोड़ूँगा।” इस प्रकार बलि ने गुरु की आपत्ति के बावजूद दान के लिए संकल्प ले लिया।
जैसे ही बलि ने जल अर्घ्य हाथ से छोड़ा और “तीन पग भूमि” का दान वचन रूप में दे दिया, उसी क्षण वह बौना वामन रूप विराट त्रिविक्रम हो गया। भगवान विष्णु ने अपना स्वरूप इतना विस्तृत किया कि उनकी एक पग में पूरी पृथ्वी, दूसरे पग में समस्त स्वर्ग और ऊर्ध्वलोक समा गया। अब तीसरे पग के लिए स्थान शेष ही नहीं रहा। भगवान ने बलि से पूछा – “तूने मुझे तीन पग भूमि दान की थी। दो पग में मैंने समस्त भुवन नाप लिए, अब तीसरा पग कहाँ रखूँ? तूने तो वचन दिया था।”
राजा बलि ने सिर झुकाकर उत्तर दिया – “प्रभु, अब मेरे पास देने को कुछ भी शेष नहीं। मेरा शरीर ही अब शेष है, आप अपना तीसरा पग मेरे शिर पर रख दीजिए।” यह कहकर उन्होंने निडरता से अपना मस्तक आगे बढ़ा दिया। इस उत्तर से यह स्पष्ट हुआ कि बलि का अहंकार नहीं, बल्कि त्याग और सत्यनिष्ठा भी उतनी ही महान है। भगवान ने प्रसन्न होकर अपना तीसरा चरण उसके सिर पर रखा और उसे सुतल लोक का अधिपति बना दिया, जो पाताल–लोकों में भी अत्यंत सुखद और वैभवशाली लोक माना गया, और साथ ही यह वर दिया कि वे स्वयं सुतल में आकर समय–समय पर बलि की द्वार–रक्षा करेंगे।
कथा के अनुसार, भगवान ने इंद्र का स्वर्ग फिर से देवताओं को लौटा दिया, पर राजा बलि को भी पूरी तरह तिरस्कृत नहीं किया, बल्कि उसे वैभवयुक्त लोक देकर उसकी दानशीलता और भक्ति को सम्मान दिया। इस प्रकार वामन–अवतार में दो कार्य एक साथ हुए – इंद्र–पद की पुनः स्थापना और बलि की परीक्षा के बाद उसे उच्च लोक और भगवान की निकटता का वरदान। यही कारण है कि बलि भविष्य में आने वाले एक कल्प के इंद्र भी कहे गए हैं।
इस अवतार से यह शिक्षा मिलती है कि ईश्वर जब “छोटा” बनकर आते हैं, तो भी वे सम्पूर्ण जगत को अपने भीतर धारण किए रहते हैं। वामन–रूप से लेकर त्रिविक्रम–रूप तक, यह पूरा प्रसंग यह दिखाता है कि वरदान, शक्ति और अहंकार के बीच भी यदि कोई सच्चा दानी और वचन–पालन करने वाला हो, तो ईश्वर उसे भी सम्मान देते हैं — भले ही वे उसकी बाहरी सत्ता को सीमित कर दें, पर उसकी आंतरिक महिमा को नष्ट नहीं करते।
स्रोत / ग्रंथ–संदर्भ (Reference):
यह वामन–अवतार और राजा बलि की कथा मुख्य रूप से –
- श्रीमद्भागवत महापुराण, अष्टम स्कन्ध (विशेषकर 8.15 से 8.23 तक के अध्यायों में वामन अवतार, बलि, अदिति, इंद्र आदि का विस्तार से वर्णन)।
- विष्णु पुराण, पंचम अंश में वामन अवतार प्रसंग।
- वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड में विष्णु के वामन और त्रिविक्रम रूप का संक्षिप्त उल्लेख।
लेखक / Writer
तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By
सनातन संवाद
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