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शिव गंगाधर: शिव जी द्वारा गंगा को जटाओं में धारण करने की कथा | Shiv Gangadhar Ganga Avataran Katha

शिव गंगाधर: शिव जी द्वारा गंगा को जटाओं में धारण करने की कथा | Shiv Gangadhar Ganga Avataran Katha

शिव गंगाधर: शिव जी द्वारा गंगा को जटाओं में धारण करने की कथा

शिव गंगाधर – शिव जी द्वारा गंगा को जटाओं में धारण करने की कथा

नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।

आज मैं आपको शिव जी द्वारा गंगा को जटाओं में धारण करने की कथा सुना रहा हूँ – वही प्रसंग, जो गंगावतरण का हृदय है, लेकिन इस बार दृष्टि शिव पर केंद्रित है।

जब राजा भगीरथ ने अपने पूर्वजों – सगर के साठ हज़ार पुत्रों – के उद्धार के लिए संकल्प लिया, तब उन्हें यह स्पष्ट कहा गया था कि केवल गंगा का जल उनके भस्म देह पर गिरने से ही उन्हें मुक्ति मिलेगी, और गंगा इस समय केवल स्वर्गीय लोकों में स्थित हैं। भगीरथ ने पहले ब्रह्मा जी की तपस्या की; ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर कहा कि वे गंगा को पृथ्वी पर भेजने को तैयार हैं, पर एक बड़ी समस्या है – गंगा का वेग इतना प्रचंड है कि वे यदि सीधे आकाश से पृथ्वी पर गिरेंगी तो पृथ्वी उसका आघात सह नहीं पाएगी, मानो चूर्ण हो जाएगी। इसलिए ब्रह्मा ने भगीरथ से कहा कि पहले किसी ऐसे देव को प्रसन्न करना होगा जो गंगा के इस महा–प्रपात को अपने ऊपर धारण कर सके।

अब भगीरथ ने हिमालय में ही दूसरा महातप आरम्भ किया – इस बार लक्ष्य थे महादेव शिव। वे दीर्घकाल तक शिव की आराधना में लीन रहे। शैव–पुराण और भागवत–परंपरा दोनों में आता है कि शिव उनकी भक्ति, धैर्य और पितृ–भक्ति से प्रसन्न हुए और उनके सामने प्रकट हुए। भगीरथ ने विनय से निवेदन किया कि – “भगवन, ब्रह्मा जी ने गंगा को पृथ्वी पर भेजना स्वीकार किया है, पर वेग के कारण वे केवल आप ही के सहारे उतर सकती हैं। आप कृपा करके गंगा के प्रपात को अपनी जटा में धारण कीजिए, फिर धीरे–धीरे उन्हें पृथ्वी पर छोड़िए, ताकि पृथ्वी भी सुरक्षित रहे और मेरे पितरों का भी उद्धार हो सके।” शिव ने भगीरथ का संकल्प, करुणा और लोक–हित देख कर यह दिव्य कार्य स्वीकार कर लिया।

जब समय आया, तब ब्रह्मा जी ने गंगा को स्वर्ग से छोड़ दिया। गंगा गर्वित भी थीं – दिव्य लोकों की धारा, देवताओं द्वारा सेवा की गई, अब वे समझती थीं कि उनके वेग को कोई रोक नहीं सकेगा। वे भयंकर प्रपात के साथ शिव की ओर गिरीं, मानो समूचे ब्रह्मांड को बहा ले जाने वाली धारा हों। पर महादेव ने शांत भाव से उन्हें अपने जटाजूट में ही रोक लिया। गंगा की समस्त धाराएँ उनकी उलझी हुई घनी जटाओं में फँस गईं और बाहर का मार्ग न पा सकीं। यह दृश्य प्रतीकात्मक रूप से दिखाता है कि प्रकृति की सबसे प्रचंड शक्ति भी जब तक शुद्ध चैतन्य – शिव–तत्त्व – द्वारा संयमित न हो, तब तक वह नियंत्रित और कल्याणकारी रूप में प्रकट नहीं हो सकती।

कथा में आता है कि अब गंगा स्वयं शिव की जटाओं में ही घूमती रह गईं, वे बाहर न निकल सकीं। भगीरथ ने देखा कि गंगा तो आईं जरूर, पर पृथ्वी तक पहुँची नहींं, उनके पितरों का उद्धार अभी भी शेष है। तब उन्होंने पुनः शिव की स्तुति की, प्रार्थना की कि वे गंगा को अपनी जटाओं से मुक्त करके नियंत्रित वेग से पृथ्वी की ओर छोड़ दें। शिव ने करुणा की और अपनी जटा की एक लट को खोल दिया। उस एक लट से निकलकर गंगाजी पृथ्वी की ओर उतरने लगीं – अब वे विवेक–संयम से नियंत्रित धारा के रूप में बह रही थीं।

यहीं से शिव “गंगाधर” कहलाए – अर्थात्, गंगा को धारण करने वाले। यह नाम केवल अलंकार मात्र नहीं, बल्कि यह दर्शाता है कि सृष्टि की प्रवाहमान शक्ति (गंगा) और साक्षी–चैतन्य (शिव) का एक गहरा संबंध है। शिव की जटाओं में गंगा का रुक जाना और फिर नियंत्रित होकर पृथ्वी पर उतरना, यह बताता है कि बिना शिव–तत्त्व के, केवल शक्ति का प्रपात संसार के लिए विनाशकारी हो सकता था; शिव ने ही उसे लोक–कल्याणकारी बना दिया।

इसके बाद गंगा भगीरथ के रथ के पीछे–पीछे चल पड़ीं, पर्वतों और भूमियों को पार करती हुई अंत में उस स्थान तक पहुँचीं जहाँ सगरपुत्रों की भस्म थी। वहाँ उनके जल के स्पर्श से पितरों का उद्धार हुआ। यह संपूर्ण प्रक्रिया – ब्रह्मा द्वारा अनुमति, शिव द्वारा धारण, फिर पृथ्वी पर अवतरण – यही शिव के “गंगाधर” रूप की पूरी कथा का सार है। शिव की यह स्थिति हमें यह भी सिखाती है कि सच्चा त्यागी केवल दुनियादारी से भागता नहीं, बल्कि सबसे कठिन और भारी संकटों को भी अपने ऊपर लेकर लोक की रक्षा करता है – जैसे विष–पान में वे नीलकंठ बने, वैसे ही गंगा–प्रपात को संभालकर वे गंगाधर हुए।

आज भी जब हम शिव–मूर्तियों में उनके जटाजूट से निकलती हुई गंगा की धारा देखते हैं, तो केवल एक सुंदर मूर्ति नहीं देखते, बल्कि उस स्मृति को देखते हैं कि – जब भी कोई महान कार्य लोक–कल्याण के लिए होता है, उसके पीछे किसी न किसी का मौन धारण, संयम और त्याग छुपा होता है। भगीरथ के तप बिना गंगा न उतरतें, और शिव के धारण बिना गंगा का अवतरण विनाशकारी होता – इसीलिए ये दोनों नाम – “भागीरथी” और “गंगाधर” – गंगाजी के साथ सदैव जुड़े रहते हैं।


स्रोत / ग्रंथ–संदर्भ (Reference):

यह प्रसंग मुख्य रूप से –

  • वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड – सगर, अंशुमान, दिलीप, भगीरथ और गंगावतरण के प्रसंग में शिव द्वारा गंगा–धारण का वर्णन।
  • श्रीमद्भागवत महापुराण, नवम स्कन्ध – सूर्यवंश वर्णन में गंगावतरण एवं भगीरथ–तप के साथ संक्षेप में शिव–गंगाधर प्रसंग।
  • शिव–महिमा से सम्बंधित कुछ विवरण शिव–पुराण के गंगावतरण अध्यायों में प्राप्त होते हैं (भक्ति–परंपरा में प्रचलित स्वरूप के रूप में)।


लेखक / Writer

तु ना रिं 🔱

प्रकाशन / Publish By

सनातन संवाद

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Labels: Shiv Gangadhar, Ganga Avataran Katha, गंगावतरण कथा, शिव गंगा जटा, Bhagirath Tapasya, Sanatan Dharma, Hindu Stories in Hindi, सनातन संवाद ब्लॉग

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