जब हंपी के सम्राट के सामने झुक गई थी आदिलशाही सत्ता
रायचूर युद्ध की वह कथा, जिसने दक्कन का इतिहास बदल दिया
दक्षिण भारत का इतिहास केवल मंदिरों और स्थापत्य तक सीमित नहीं है,
वह पराक्रम, राजनीति और आत्मसम्मान की असंख्य कथाओं से भरा पड़ा है।
ऐसी ही एक कम चर्चित लेकिन अत्यंत महत्वपूर्ण घटना है — रायचूर का युद्ध।
यह वही युद्ध था, जिसमें विजयनगर साम्राज्य के महान सम्राट श्रीकृष्णदेवराय ने
दक्कन की एक शक्तिशाली इस्लामी सत्ता को इस कदर पराजित किया कि उसका शासक
अपमान और भय के बीच अस्तित्व बचाने को मजबूर हो गया।
दक्कन की कमजोर होती सल्तनत
16वीं शताब्दी के आरंभ तक बहमनी सल्तनत अंदर से टूट चुकी थी।
आदिलशाही, निजामशाही और कुतुबशाही—
तीनों सत्ता के लिए आपस में संघर्ष कर रही थीं।
स्थिति इतनी खराब थी कि सल्तनत अपने ही संसाधनों को बेचकर शासन चला रही थी।
इसी राजनीतिक अव्यवस्था को कृष्णदेवराय ने भली-भांति समझ लिया।
युद्ध का बहाना, लेकिन लक्ष्य स्पष्ट
कृष्णदेवराय ने एक व्यापारी विवाद को कारण बताते हुए
आदिलशाही के अधिकार क्षेत्र रायचूर पर चढ़ाई का निर्णय लिया।
रायचूर का किला सामरिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण और
तोपखानों व विशाल सेना से सुरक्षित था।
किले में सैकड़ों तोपें, हजारों सैनिक, घुड़सवार और युद्ध हाथी तैनात थे।
यह किला जीतना आसान नहीं था —
लेकिन सामने थे दक्कन के सबसे शक्तिशाली हिंदू सम्राट।
निर्णायक युद्ध
विजयनगर की सेना ने दिन-रात भीषण युद्ध किया।
कहा जाता है कि युद्धभूमि सैनिकों के शवों से भर गई थी।
तोपों की मार के बीच,
विजयनगर की फौज ने अद्भुत साहस दिखाया
और धीरे-धीरे किले की दीवारों तक पहुँच गई।
जब आदिलशाही सेनापति स्थिति का जायज़ा लेने बाहर निकला,
तो वहीं उसका अंत हो गया।
यह क्षण युद्ध की दिशा बदलने वाला सिद्ध हुआ।
अपमान या अस्तित्व?
पराजय निश्चित देख
इस्माइल आदिलशाह ने संधि की कोशिश की।
उसका दूत कृष्णदेवराय के पास पहुँचा।
सम्राट का उत्तर इतिहास में दर्ज हो गया —
> “संधि संभव है…
पर शर्त यही है कि आदिलशाह स्वयं आकर
हमारे चरणों में नतमस्तक हो।”
यह केवल राजनीतिक शर्त नहीं थी,
यह विजेता का आत्मसम्मान और पराजित की वास्तविक स्थिति का उद्घोष था।
भय ने चुन लिया तीसरा रास्ता
आदिलशाह समझ गया —
यदि सामने गया, तो अपमान तय है।
और यदि न गया, तो राज्य का अंत।
अंततः उसने पलायन को चुना।
कृष्णदेवराय की सेना आगे बढ़ती रही
और विजापूर जैसे समृद्ध नगर भी
उनकी शक्ति के सामने टिक न सके।
दक्कन में गूँजी विजयनगर की गूँज
इस विजय के बाद
कृष्णदेवराय ने दक्कन में सत्ता संतुलन बदल दिया।
उन्होंने बहमनी सल्तनत में मनोनुकूल शासक को स्थापित किया
और पूरे क्षेत्र में अपनी धाक जमा दी।
इसी कारण उन्हें
“यवन राज्य-स्थापनाचार्य” जैसी उपाधि से भी जाना गया।
इतिहास की कड़ी
यह वही आदिलशाही थी,
जो आगे चलकर
छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे महानायक के सामने
फिर से झुकने को मजबूर हुई।
समय बदला…
राजा बदले…
लेकिन सनातन परंपरा की रक्षा करने वाला पराक्रम
पीढ़ी दर पीढ़ी जीवित रहा।
✍️ सनातन संवाद
इतिहास केवल बीता हुआ कल नहीं,
वह भविष्य को दिशा देने वाला दर्पण है।

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