भौतिकता क्षणिक है, आत्मा शाश्वत है
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य को स्मरण कराने आया हूँ जिसे मनुष्य बार-बार भूल जाता है और भूलकर फिर दुख के चक्र में प्रवेश कर जाता है — भौतिकता क्षणिक है, आत्मा शाश्वत है। यह वाक्य कोई वैराग्य का नारा नहीं, न ही संसार से पलायन की सीख है; यह जीवन को सही दृष्टि से देखने की कुंजी है। जब तक यह दृष्टि स्पष्ट नहीं होती, तब तक मनुष्य क्षणिक को स्थायी समझकर पकड़ता रहता है और शाश्वत को उपेक्षित करता रहता है।
भौतिक संसार सतत परिवर्तन में है। जो आज है, वह कल नहीं रहता। शरीर बदलता है, धन आता-जाता है, संबंध बनते-टूटते हैं, पद और प्रतिष्ठा समय के साथ मिट जाते हैं। जिस वस्तु को मनुष्य अपना सब कुछ मान लेता है, वही वस्तु समय आने पर उससे छिन जाती है। यह क्षणिकता कोई दोष नहीं, यह प्रकृति का नियम है। दोष तब पैदा होता है जब मनुष्य इस क्षणिकता को समझे बिना उससे स्थायित्व की अपेक्षा करने लगता है। तब निराशा जन्म लेती है, भय जन्म लेता है, और दुख का विस्तार होता है।
आत्मा इसके ठीक विपरीत है। आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है। वह न समय से बंधी है, न स्थान से। देह बदलती है, पर आत्मा साक्षी बनी रहती है। मनुष्य जब कहता है “मैं हूँ”, तो यह “हूँ” किसी पद, किसी वस्तु या किसी भूमिका पर आधारित नहीं होता; यह अस्तित्व की शुद्ध अनुभूति है। यही अनुभूति आत्मा की उपस्थिति का प्रमाण है। जो कुछ बदल रहा है, वह आत्मा नहीं हो सकता; जो नहीं बदलता, वही आत्मा है।
मनुष्य की भूल यह है कि वह साधन को साध्य बना लेता है। धन, सुविधा, तकनीक और भोग जीवन को चलाने के साधन हैं, जीवन का लक्ष्य नहीं। जब साधन ही लक्ष्य बन जाता है, तब जीवन का संतुलन बिगड़ जाता है। मनुष्य अधिक से अधिक इकट्ठा करता है, फिर भी भीतर खाली रहता है। यह खालीपन इसलिए है क्योंकि आत्मा भौतिकता से तृप्त नहीं होती। आत्मा का स्वभाव शांति, प्रेम और अर्थ है; भौतिकता का स्वभाव उपभोग और क्षणिक आनंद है।
यह समझ लेना आवश्यक है कि भौतिकता को नकारना आवश्यक नहीं, उसे सही स्थान पर रखना आवश्यक है। संसार में रहकर आत्मा को जानना ही सनातन की शिक्षा है। शरीर की आवश्यकता है, धन की आवश्यकता है, संबंधों की आवश्यकता है, पर इनके बीच यह स्मरण बना रहना चाहिए कि ये सब अस्थायी हैं। इनका उपयोग हो, इनसे आसक्ति नहीं। उपयोग से जीवन चलता है, आसक्ति से बंधन बनता है।
जब मनुष्य यह पहचान लेता है कि उसकी वास्तविक पहचान शरीर, नाम या संपत्ति नहीं है, बल्कि वह चेतना है जो इन सबको अनुभव कर रही है, तब उसका जीवन बदलने लगता है। भय कम होता है, क्योंकि मृत्यु का भय आत्मा को नहीं होता। ईर्ष्या कम होती है, क्योंकि तुलना वस्तुओं के बीच होती है, आत्माओं के बीच नहीं। अहंकार ढीला पड़ता है, क्योंकि अहंकार पहचान से बनता है और आत्मा पहचान से परे है।
आत्मा शाश्वत है, इसका अर्थ यह भी है कि मनुष्य के कर्म, उसके संस्कार और उसकी चेतना का स्तर जीवन के साथ समाप्त नहीं होता। इसलिए जीवन केवल आज के लिए नहीं है; यह एक दीर्घ यात्रा का पड़ाव है। जब यह दृष्टि आती है, तब मनुष्य तात्कालिक लाभ के लिए अधर्म नहीं चुनता, क्योंकि उसे ज्ञात होता है कि क्षणिक लाभ शाश्वत हानि बन सकता है।
भौतिकता की दौड़ में मनुष्य थक जाता है, क्योंकि दौड़ का कोई अंत नहीं। आत्मा की ओर मुड़ते ही थकान उतरने लगती है, क्योंकि वहाँ पाने की नहीं, पहचान की यात्रा है। पहचान पूरी होते ही खोज समाप्त हो जाती है। फिर जीवन सरल हो जाता है, सहज हो जाता है। मनुष्य संसार में रहता है, पर संसार उसके भीतर नहीं रहता।
अंततः सत्य यही है कि जो दिखाई देता है, वह अस्थायी है; जो अनुभव होता है, वह स्थायी है। जो बदला जा सकता है, वह आत्मा नहीं; और जो सदा साथ रहता है, वही आत्मा है। इस सत्य को समझ लेने पर मनुष्य संसार का त्याग नहीं करता, बल्कि संसार को सही ढंग से जीना सीख लेता है।
इसीलिए ऋषियों ने स्मरण कराया — भौतिकता क्षणिक है, आत्मा शाश्वत है। जो इसे जान लेता है, वह संसार में रहते हुए भी मुक्त हो जाता है; और जो इसे भूल जाता है, वह सब कुछ पाकर भी भीतर से रिक्त रह जाता है।
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