भगवान दत्तात्रेय — त्रिमूर्ति संयुक्त अवतार की सम्पूर्ण कथा | सनातन संवाद
भगवान दत्तात्रेय — त्रिमूर्ति संयुक्त अवतार की सम्पूर्ण कथा | सनातन संवाद
भगवान दत्तात्रेय — त्रिमूर्ति संयुक्त अवतार की सम्पूर्ण कथा
लेखक / Writer : तु ना रिं 🔱 | प्रकाशन / Publish By : सनातन संवाद
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं आपको भगवान दत्तात्रेय की कथा सुनाने आया हूँ जिसे सनातन धर्म में त्रिमूर्ति के संयुक्त अवतार के रूप में पूजित किया गया है। आज उनकी पावन जयंती है और इसी अवसर पर।
भगवान दत्तात्रेय की कथा माता अनसूया की तप-शक्ति से शुरु होती है जिनकी पतिव्रता के तेज ने तीनों लोकों को चमत्कृत कर दिया था। अनसूया इतनी पवित्र, इतनी निर्मल, इतनी धर्म-निष्ठ थीं कि देवताओं तक को उनके तेज का अनुभव करना पड़ा। ब्रह्मा, विष्णु और महेश स्वयं भिक्षु के वेश में उनके आश्रम आए और उनसे वह वर माँगा जिसे माँगने का किसी साधारण व्यक्ति में साहस नहीं—उन्होंने कहा कि माता उन्हें अपनी कोख का पवित्र प्रसाद, अपना मातृ-स्तनपान देना स्वीकार करें। अनसूया समझ गईं कि ये कोई सामान्य अतिथि नहीं, पर उन्होंने धर्म का पालन करते हुए अपनी शक्ति से तीनों देवों को बालक बना दिया और बड़े प्रेम से उन्हें स्तनपान कराया। जब त्रिदेव वास्तविक रूप में प्रकट हुए, तब उनके हृदय अनसूया माता की पवित्रता से अभिभूत हो उठे। उन्होंने आशीर्वाद दिया कि उनके गर्भ से जो पुत्र जन्म लेगा, वह तीनों का संयुक्त रूप होगा, और इसी वर का फल था—भगवान दत्तात्रेय—ब्रह्मा, विष्णु और शिव का एक साथ धरती पर प्राकट्य। जन्म लेते ही उनका मुख तेजस्वी, त्रिकालज्ञान से युक्त और दिव्य आभा से प्रकाशमान था। वे न बालवत् थे, न वृद्धवत्—वे तो जैसे विष्णु का शाश्वत अंश थे जिन्होंने क्षण भर के लिए मानव रूप धारण कर लिया हो।
दत्तात्रेय ने प्रारम्भ से ही संसार को समझ लिया था। उनका मन न गृह में रम सका, न वस्त्रों में, न आभूषणों में, न किसी सांसारिक बंधन में। उन्होंने अल्पायु में ही माता-पिता से आज्ञा लेकर सन्यास धारण कर लिया और वन के एकान्त में जाकर तप करने लगे। पर उनका तप वह नहीं था जिसमें मनुष्य संसार से भागता है—उनका तप तो वह था जिसमें मनुष्य संसार को ब्रह्म के रूप में देखना सीखता है। वे वन, पर्वत, नदियों और दिशाओं में ऐसे विचरते जैसे ब्रह्म स्वरूप चल रहा हो। कहते हैं कि दत्तात्रेय ने संसार के २४ रूपों में गुरुत्व पाया और प्रत्येक से आध्यात्मिक शिक्षा ग्रहण की। पृथ्वी से उन्होंने सहनशीलता सीखी, जल से सरलता और शुद्धता का भाव सीखा, अग्नि से तेज और वैराग्य का रहस्य पाया, वायु से निर्लिप्तता, आकाश से व्यापकता, चन्द्रमा से मन की शान्ति और सूर्य से कर्म की अनवरत गती का उपदेश मिला। पशुओं, पक्षियों, कीड़ों और सरल जीवों से उन्होंने वह सूक्ष्म ज्ञान पाया जो केवल विनम्र साधकों को मिलता है। यही कारण है कि वे जगद्गुरु कहलाए—क्योंकि उनका ज्ञान मनुष्य की पुस्तकों से नहीं, प्रकृति की पुस्तक से जन्मा था।
दत्तात्रेय के जीवन में सर्वाधिक महत्त्व उनका अद्वैत ज्ञान है, जो बाद में 'अवधूत गीता' के रूप में प्रकट हुआ और जिसे आज भी वेदांत की सर्वोत्कृष्ट कृति माना जाता है। उसमें दत्तात्रेय कहते हैं कि आत्मा किसी शरीर से सीमित नहीं, कोई मन, बुद्धि, चित्त या अहंकार उसे बाँध नहीं सकता। आत्मा ही ब्रह्म है—नित्य, शाश्वत और स्वरूपतः मुक्त। वे कहते हैं कि मनुष्य दुखी इसलिए है क्योंकि वह उस चीज़ को अपना मान बैठता है जो कभी उसका था ही नहीं। दत्तात्रेय सांसारिक जीवन का विरोध नहीं करते—वे केवल आसक्ति का त्याग सिखाते हैं। वे कहते हैं कि मनुष्य संसार में रहे, कर्म करे, प्रेम करे, परिवार निभाए, पर भीतर से अपने को उस अनंत ब्रह्म का अंश समझे जिसकी कोई सीमा नहीं। यही ज्ञान मानव को मुक्त करता है।
दत्तात्रेय की एक और महान विशेषता यह है कि वे किसी एक परम्परा में सीमित नहीं—योग में वे आदिगुरु हैं, तांत्रिक साधना में महामहेश्वर, ज्ञान में अद्वैत के प्रणेता, और भक्ति में कृपासागर। नाथ परम्परा के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ और गोरखनाथ ने दत्तात्रेय को ही योग का मूल स्त्रोत माना है। हठयोग, नाड़ी-चक्र, प्राण, कुंडलिनी—इन सबका रहस्य दत्तात्रेय के मार्ग से ही निकला। उन्होंने मनुष्य को यह सिखाया कि साधना शरीर से शुरू होती है, पर उसका लक्ष्य शरीर से परे है। उनके शिष्य अनगिनत हुए—सिद्ध, नाथ, योगी, ऋषि, तपस्वी, और अनेक राजा भी। यहाँ तक कि परशुराम जैसे योद्धा ने भी दत्तात्रेय से ज्ञान प्राप्त किया।
पर दत्तात्रेय केवल तपस्वी नहीं—वे कृपा के सागर भी हैं। उनके बारे में कहा जाता है कि यदि कोई साधक मन से उन्हें पुकारे, चाहे वह कितना ही दुखी हो, कितना भटका हुआ हो, कितना टूटा हुआ हो—दत्तात्रेय तुरंत उसकी सहाय्यता के लिए उसके भीतर उतरते हैं। वे मार्गदर्शन बाहरी रूप से नहीं, भीतर से देते हैं—मन में एक चिन्ता समाप्त होती है, हृदय में शान्ति उतरती है, और चित्त में एक नई दिशा प्रकट होती है। यही दत्तात्रेय की कृपा है।
दत्तात्रेय जयंती के दिन प्रकृति में एक विशेष दिव्यता मानी गई है। ऐसा कहा जाता है कि आज त्रिदेवोंका प्रकाश पृथ्वी पर अधिक सक्रिय होता है, साधक का मन अधिक ग्रहणशील होता है, और दत्तात्रेय की कृपा साधकों पर सहज रूप से बरसती है। जो व्यक्ति आज एक क्षण भी मन को स्थिर कर दत्तात्रेय का ध्यान करता है, वह अपने भीतर एक ऐसी आभा महसूस करता है जिसे शब्दों में नहीं बाँधा जा सकता। यह दिन केवल उत्सव नहीं—ब्रह्म के स्पर्श का दिन है।
आज के समय में जब मनुष्य तनाव, भय, क्रोध, असन्तोष और असुरक्षा से घिरा हुआ है, तब दत्तात्रेय का संदेश पहले से अधिक आवश्यक है। वे कहते कि मनुष्य बाह्य वस्तुओं को पकड़ने की इच्छा छोड़ दे, जो आता है उसे आने दे, जो जाता है उसे जाने दे, और अपने भीतर उस नित्य तत्व को पहचान ले जो कभी बदलता नहीं। यदि कोई यह सीख ले तो उसका सम्पूर्ण जीवन बदल जाता है। दत्तात्रेय किसी एक धर्म, जाति या पंथ के नहीं—वे मनुष्य के हृदय के देव हैं। वे मुक्त आत्मा के प्रतीक हैं—एक ऐसी आत्मा जो संसार में रहते हुए भी संसार से परे है।
आज उनकी जयंती पर मैं यही आग्रह करता हूँ कि हम सब अपने भीतर उस दिव्यता को पहचानें जो दत्तात्रेय ने दिखायी थी। अपने भीतर उस शान्ति को खोजें जो संसार की किसी वस्तु से नहीं, केवल आत्मा से आती है। वह आत्मा ही दत्तात्रेय हैं—और दत्तात्रेय ही वह आत्मा जो हर हृदय में विद्यमान है।
जय दत्तात्रेय।
जय अवधूत।
संक्षेप / Highlights
भगवान दत्तात्रेय त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) का संयुक्त अवतार माने जाते हैं।
माता अनसूया की तपशक्ति से दत्तात्रेय का जन्म हुआ—जो अद्वैत, अवधूत और जगद्गुरु थे।
दत्तात्रेय ने प्रकृति, पशु-पक्षी और दिशाओं से जीवन-ज्ञान ग्रहण कर अवधूत गीता जैसी शिक्षाएँ दीं।
दत्तात्रेय जयंती पर साधकों के लिए विशेष कृपा और आंतरिक शान्ति का अवसर माना जाता है।
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