देवर्षि नारद का श्राप और विष्णु माया — एक दिव्य सनातन कथा
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं तुम्हें एक ऐसी दिव्य कथा सुनाने आया हूँ, जिसे बहुत कम लोग जानते हैं, पर जिसका स्थान सनातन परंपरा में अत्यंत अद्भुत और रहस्यमय है — यह कथा है देवर्षि नारद के श्राप और प्रभु विष्णु के मायाजाल की। यह कथा बताती है कि किस प्रकार प्रभु की माया स्वयं ब्रह्मज्ञानी को भी बाँध सकती है, और भगवान किस तरह अपने भक्त का अभिमान दूर करके उसे सच्चा ज्ञान प्रदान करते हैं।
एक समय की बात है। देवर्षि नारद, जो अपने ज्ञान, भक्ति और वैराग्य के कारण संपूर्ण लोकों में सम्मानित थे, एक दिन गहन तपस्या में स्थित थे। उनका ध्यान इतना पवित्र और स्थिर था कि देवता भी प्रभावित हो गए। उनकी तपस्या पूर्ण होने पर अहंकार की एक हल्की सी रेखा उनके मन में उत्पन्न हो गई—वे सोचने लगे कि अब वे कामदेव के वश में नहीं आ सकते। यह विचार ही उनके पतन की शुरुआत बन गया, क्योंकि अहंकार वह द्वार है जिससे अज्ञान प्रवेश करता है।
कुछ समय बाद नारद एक वन से गुजर रहे थे। वहाँ एक सुंदर राजकन्या का स्वयंवर होने वाला था। नारद ने बिना किसी इच्छा के उसे देखा, परंतु तभी कामदेव ने अवसर पाते ही उनका परीक्षण किया। राजकन्या का रूप अत्यंत मोहक था, और नारद कुछ क्षणों के लिए आकर्षित हो गए। तुरंत ही उन्हें अपने मन की इस दुर्बलता का बोध हुआ और वे व्याकुल हो उठे। वे सीधा भगवान विष्णु के पास गए।
उन्होंने कहा—
“हे प्रभु! मेरी तपस्या का क्या फल? मैं काम से जीतना चाहता था परन्तु वह मुझ पर प्रभाव डाल गया। आप मेरी सहायता कीजिए। मुझे ऐसा रूप दीजिए कि राजकन्या स्वयं मेरा वरण करे।”
भगवान विष्णु मुस्कराए। वे भक्त के अहंकार को समझ रहे थे।
उन्होंने कहा—
“देवराज, जो तुम चाहो, वैसा ही होगा।”
नारद अत्यंत प्रसन्न हुए और स्वयंवर में पहुँचे। उन्हें लगा कि अब राजकन्या निश्चित ही उनका चयन करेगी। अत्यंत आत्मविश्वास के साथ वे वहाँ उपस्थित हुए। लेकिन जैसे ही वे राजकन्या के सामने पहुँचे, उसने तुरंत माला उठाई और सामने खड़े भगवान विष्णु के गले में डाल दी—जो मनुष्य रूप में वहाँ उपस्थित थे।
नारद स्तब्ध रह गए। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि राजकन्या ने उन्हें अनदेखा कर दिया। उपहास सुनाई दिया। वे नाराज़ हुए और भागकर जल में अपना प्रतिबिंब देखने गए। वहां उन्होंने देखा कि भगवान ने उन्हें मनुष्य का नहीं, बल्कि वानर जैसा रूप दे दिया था। अब सब समझ में आ गया—विष्णु ने उनका अभिमान दूर करने के लिए उन्हें यह अनुभव कराया था।
क्रोधित होकर नारद ने विष्णु को श्राप दे दिया—
“हे विष्णु! आज से तुम भी मनुष्य जन्म में पत्नी-वियोग का दुःख भोगोगे, और तुम्हारी सहायता कोई नहीं कर सकेगा!”
श्राप सुनते ही भगवान मुस्कराए और बोले—
“तथास्तु। तुम्हारा श्राप ही भविष्य में रामावतार का कारण बनेगा।”
नारद तुरंत पश्चाताप में डूब गए। उन्हें अहसास हुआ कि प्रभु ने उन्हें केवल उनके अहंकार से मुक्त करने के लिए लीला रची थी, क्रोध में उन्होंने जो कहा वह स्वयं विष्णु के कार्य का एक आवश्यक भाग बन गया। नारद ने विनती की—
“प्रभु, मुझे क्षमा करें।”
भगवान ने कहा—
“हे नारद! भक्त का श्राप भी मेरे लिए वरदान होता है। तुमने जो कहा, वही त्रेतायुग में पूर्ण होगा। राम रूप में मैं वही व्यथा सहूँगा, ताकि संसार को धर्म, त्याग और मर्यादा का ज्ञान हो सके।”
यह सुनकर नारद के नेत्र भर आए। उन्होंने अपने अहंकार को समर्पण में बदल दिया और सच्चे ज्ञान को प्राप्त किया। यह कथा दिखाती है कि देवता भी माया के पार नहीं हैं, और अहंकार मनुष्य और देवता—दोनों को बाँध देता है। प्रभु विष्णु ही वह शक्ति हैं जो ज्ञान भी देते हैं और भक्त के दोष को भी लीला बनाकर संसार का कल्याण करते हैं।
स्रोत / संदर्भ: यह कथा नारद चरित, विष्णु पुराण और वाल्मीकि रामायण – अयोध्या कांड पर आधारित है।
लेखक : तु ना रिं 🔱
प्रकाशन : सनातन संवाद
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FAQ — देवर्षि नारद और विष्णु माया कथा
1. नारद ने विष्णु को श्राप क्यों दिया?
नारद को लगा कि भगवान ने उनके साथ छल किया और उनके अहंकार को तोड़ा, जिससे वे क्रोधित होकर श्राप दे बैठे।
2. यह श्राप रामावतार का कारण कैसे बना?
विष्णु ने कहा कि वही श्राप त्रेतायुग में राम रूप में पूरा होगा, जहाँ उन्हें सीता-वियोग का दुख सहना पड़ेगा।
3. क्या यह कथा पुराणों में मिलती है?
हाँ, यह कथा प्रमुख रूप से नारद चरित, विष्णु पुराण और रामायण के प्रसंगों में मिलती है।
Copyright © तु ना रिं • सनातन संवाद
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