प्रेम ही ईश्वर तक पहुँचने का सेतु है
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य को शब्द देने आया हूँ जिसे शास्त्रों ने मौन में जिया, संतों ने आँसुओं में व्यक्त किया और भक्तों ने अपने पूरे अस्तित्व से प्रमाणित किया है — प्रेम ही ईश्वर तक पहुँचने का सेतु है। यह वाक्य किसी भावुक कल्पना का परिणाम नहीं है, यह जीवन का सबसे गहरा अनुभव है। ईश्वर तक पहुँचने के लिए मनुष्य ने अनेक मार्ग बनाए — ज्ञान, योग, तप, व्रत, साधना — पर इन सब मार्गों के बीच जो सेतु है, जो सबको जोड़ता है, जो सबको पार कराता है, वही प्रेम है। प्रेम के बिना कोई भी साधना शुष्क है, कोई भी ज्ञान बोझ है, और कोई भी भक्ति केवल कर्मकांड।
प्रेम वह शक्ति है जो दूरी को मिटा देती है। जहाँ प्रेम होता है, वहाँ “मैं” और “तू” की रेखा अपने आप मिट जाती है। और जहाँ यह रेखा मिटती है, वहीं ईश्वर प्रकट होते हैं। क्योंकि ईश्वर दूरी में नहीं रहते, वे तो एकत्व में प्रकट होते हैं। प्रेम एकत्व का अनुभव है। जब मनुष्य किसी से प्रेम करता है, तब वह उसके सुख में सुखी और उसके दुख में दुखी हो जाता है। यही भाव जब संपूर्ण सृष्टि के प्रति जागृत हो जाए, तब वही प्रेम ईश्वर-प्रेम बन जाता है।
ईश्वर को तर्क से नहीं पाया जा सकता, क्योंकि तर्क विभाजन करता है। ईश्वर को अधिकार से नहीं पाया जा सकता, क्योंकि अधिकार अहंकार को पुष्ट करता है। ईश्वर को भय से नहीं पाया जा सकता, क्योंकि भय दूरी बनाता है। ईश्वर केवल प्रेम से मिलता है, क्योंकि प्रेम ही एकमात्र अवस्था है जिसमें अहंकार गल जाता है। और जहाँ अहंकार नहीं रहता, वहीं ईश्वर सहज रूप से उतर आते हैं।
प्रेम में कोई गणना नहीं होती। प्रेम यह नहीं पूछता कि मुझे क्या मिलेगा। वह बस देता है, बहता है, समर्पित होता है। यही कारण है कि प्रेम सबसे बड़ी साधना है। जब माँ अपने बच्चे को प्रेम से सुलाती है, तब वह अनजाने में सबसे ऊँची पूजा कर रही होती है। जब कोई व्यक्ति बिना स्वार्थ किसी भूखे को भोजन देता है, तब वह बिना मंत्र जपे सबसे बड़ा यज्ञ कर रहा होता है। जब कोई मनुष्य किसी के दुख को अपना दुख मान लेता है, तब वह ईश्वर के सबसे निकट खड़ा होता है।
शास्त्रों में बार-बार यह कहा गया है कि ईश्वर हृदय में निवास करते हैं। पर कौन सा हृदय? वह नहीं जो घृणा, ईर्ष्या, क्रोध और द्वेष से भरा हो। ईश्वर उसी हृदय में उतरते हैं जो प्रेम से रिक्त नहीं, बल्कि प्रेम से परिपूर्ण हो। प्रेम वह पात्र है जो ईश्वर को धारण कर सकता है। बिना प्रेम के हृदय पत्थर है — उस पर चाहे कितने ही मंत्र लिख दो, कुछ अंकित नहीं होता।
प्रेम मनुष्य को कोमल बनाता है, पर दुर्बल नहीं। यह सबसे बड़ी भ्रांति है कि प्रेम कमजोरी है। प्रेम में अपार शक्ति होती है। वही शक्ति जिसने मीरा को विष पीकर भी मुस्कुराने का साहस दिया, वही शक्ति जिसने प्रह्लाद को अग्नि और विष से निर्भय रखा, वही शक्ति जिसने कबीर को समाज के विरोध में भी सत्य बोलने की निर्भीकता दी। प्रेम डरता नहीं, प्रेम झुकता नहीं, प्रेम टूटता नहीं — प्रेम केवल गहराता है।
प्रेम से किया गया हर कर्म पूजा बन जाता है। बिना प्रेम के की गई हर पूजा केवल कर्म रह जाती है। ईश्वर को फूल नहीं चाहिए, उन्हें भाव चाहिए। उन्हें शब्द नहीं चाहिए, उन्हें हृदय चाहिए। और हृदय प्रेम से ही खुलता है। जब मनुष्य प्रेम से भरा होता है, तब उसका मौन भी प्रार्थना बन जाता है, उसका चलना भी आरती बन जाता है, और उसका जीवन ही एक अखंड भजन बन जाता है।
प्रेम ही वह सेतु है जो मनुष्य को मनुष्य से जोड़ता है और मनुष्य को ईश्वर से जोड़ता है। जो व्यक्ति प्रेम करना सीख गया, उसने ईश्वर को पहचान लिया। क्योंकि ईश्वर कोई दूर बैठी सत्ता नहीं, वे प्रेम की अनुभूति हैं। जहाँ प्रेम है, वहीं ईश्वर हैं। और जहाँ ईश्वर हैं, वहाँ भय, द्वेष और अकेलापन टिक नहीं सकता।
अंततः ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग आकाश में नहीं, ग्रंथों में नहीं, तर्कों में नहीं — बल्कि हृदय में है। और उस हृदय का द्वार केवल प्रेम से खुलता है। इसलिए ऋषियों ने नहीं कहा कि ईश्वर को समझो, उन्होंने कहा — ईश्वर से प्रेम करो। क्योंकि समझ सीमित है, प्रेम असीम।
यही कारण है कि कहा गया है — प्रेम ही ईश्वर तक पहुँचने का सेतु है।
जो इस सेतु पर चल पड़ा, उसके लिए दूरी समाप्त हो गई। जो इस सेतु पर ठहर गया, उसके लिए जीवन धन्य हो गया। और जो इस सेतु में लीन हो गया, उसके लिए ईश्वर और आत्मा अलग नहीं रहे।
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