सनातन धर्म बनाम राजनीति” की बहस
दिसंबर 2025 में एक बहस बहुत तेज़ी से समाज के भीतर फैल रही है — “सनातन धर्म बनाम राजनीति”। यह बहस न तो नई है, न ही अचानक पैदा हुई है, लेकिन आज यह इसलिए ज़्यादा स्पष्ट दिखाई दे रही है क्योंकि धर्म को बार-बार राजनीतिक चश्मे से देखने की आदत बनती जा रही है। कई विचारक, संत और सामान्य लोग यह प्रश्न उठा रहे हैं कि क्या सनातन धर्म को केवल बहस, समर्थन और विरोध के तराजू पर तौला जाना चाहिए, या उसे उसके वास्तविक स्वरूप — एक जीवन-पद्धति — के रूप में समझा जाना चाहिए।
सनातन धर्म किसी सत्ता की खोज नहीं करता। वह मनुष्य को स्वयं के भीतर उतरने की प्रेरणा देता है। राजनीति का स्वभाव सत्ता, निर्णय और प्रभाव से जुड़ा होता है, जबकि सनातन का स्वभाव विवेक, संतुलन और आत्मबोध से। समस्या तब शुरू होती है जब इन दोनों को एक ही तराजू पर रख दिया जाता है। तब धर्म का उद्देश्य बदलने लगता है और वह साधना से उतरकर बहस का विषय बन जाता है। दिसंबर 2025 की यह चर्चा इसी असंतुलन की ओर इशारा कर रही है।
सनातन धर्म ने कभी यह नहीं कहा कि “मेरी रक्षा करो।” उसने कहा — स्वयं को जानो, स्वयं को साधो। गीता का उपदेश, उपनिषदों का चिंतन, योग और ध्यान की परंपरा — यह सब व्यक्ति के आंतरिक विकास पर केंद्रित है, न कि किसी बाहरी वर्चस्व पर। जब धर्म को राजनीतिक लाभ या हानि के संदर्भ में देखा जाता है, तब उसका मूल संदेश पीछे छूट जाता है। और यही आज कई संवेदनशील लोग महसूस कर रहे हैं।
विचारकों का यह कहना कि धर्म को विवाद नहीं, विवेक का विषय बनाया जाना चाहिए, अपने आप में बहुत गहरी बात है। विवाद शोर पैदा करता है, जबकि विवेक मौन में काम करता है। सनातन धर्म मौन का पक्षधर रहा है — वह कहता है कि सत्य को चिल्लाने की आवश्यकता नहीं होती। आज सोशल मीडिया और सार्वजनिक मंचों पर जब सनातन का नाम लेकर तर्क-वितर्क, आरोप-प्रत्यारोप और ध्रुवीकरण होता है, तब एक साधारण व्यक्ति भ्रमित हो जाता है कि धर्म क्या है और राजनीति क्या।
इस बहस का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष युवा पीढ़ी है। युवा देख रहा है कि एक ही धर्म को अलग-अलग संदर्भों में अलग-अलग तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है। कहीं वह पहचान बन जाता है, कहीं मुद्दा, कहीं हथियार। ऐसे में युवा का प्रश्न स्वाभाविक है — क्या धर्म का यही उद्देश्य है? या धर्म कुछ और है, जिसे समझने के लिए शोर से हटकर शांति की आवश्यकता है? दिसंबर 2025 में उठ रही यह आवाज़ वास्तव में उसी शांति की तलाश है।
सनातन धर्म राजनीति से ऊपर है, लेकिन राजनीति से अलग नहीं। इसका अर्थ यह है कि धर्म जीवन को दिशा देता है, और राजनीति व्यवस्था को। जब व्यवस्था दिशा को समझती है, तब समाज संतुलित रहता है। और जब दिशा को व्यवस्था के नीचे रख दिया जाता है, तब धर्म का स्वरूप बदलने लगता है। यही कारण है कि आज यह ज़रूरी हो गया है कि सनातन को फिर से उसकी मूल जगह पर रखा जाए — व्यक्ति के जीवन में, उसके आचरण में, उसके सोचने के ढंग में।
यह बहस हमें याद दिलाती है कि सनातन धर्म किसी के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होने का नाम नहीं है। वह तो भीतर खड़े होने की प्रक्रिया है। यदि हम उसे राजनीति के शोर से बाहर निकालकर जीवन की शांति में रख सकें, तो न केवल धर्म सुरक्षित रहेगा, बल्कि समाज भी अधिक संतुलित और विवेकशील बन सकेगा। और शायद यही दिसंबर 2025 की इस पूरी चर्चा का सबसे गहरा संदेश भी है।
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