प्रयागराज को पूर्ण तीर्थ नगरी घोषित करने की माँग — सनातन चेतना, मर्यादा और संतुलन का प्रश्न
दिसंबर 2025 में एक गहरी और दूरगामी चर्चा पूरे देश में उभर कर सामने आई है — प्रयागराज को पूर्ण तीर्थ नगरी घोषित करने की माँग। यह माँग केवल किसी काग़ज़ी दर्जे की नहीं है, बल्कि सनातन चेतना की उस स्मृति की पुकार है, जिसे आधुनिक व्यवस्था में धीरे-धीरे भुलाया जा रहा है। संत-समाज और धर्माचार्यों का कहना है कि प्रयागराज को सिर्फ़ एक प्रशासनिक शहर मानना उसके वास्तविक स्वरूप के साथ अन्याय है, क्योंकि यह नगर सनातन धर्म की आत्मा से जुड़ा हुआ है।
प्रयागराज कोई साधारण नगर नहीं है। यह वह भूमि है जहाँ गंगा, यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम होता है। यहाँ केवल नदियाँ नहीं मिलतीं, यहाँ समय, तपस्या और परंपरा का संगम होता है। यहीं कल्पवास की परंपरा जन्मी, यहीं महाकुंभ जैसा अद्वितीय आध्यात्मिक आयोजन होता है, और यहीं से भारत की आध्यात्मिक धारा युगों-युगों तक प्रवाहित होती रही है। ऐसे पवित्र क्षेत्र को यदि केवल ट्रैफिक, बिल्डिंग और प्रशासनिक सीमाओं में बाँध दिया जाए, तो उसकी आत्मा आहत होती है — यही पीड़ा आज संत-समाज व्यक्त कर रहा है।
पूर्ण तीर्थ नगरी घोषित करने की माँग का अर्थ यह नहीं है कि विकास रोका जाए। इसका अर्थ है — विकास मर्यादा के साथ हो। तीर्थों की अपनी एक मर्यादा होती है। वहाँ की भूमि, जल, वायु और वातावरण सब कुछ साधना से जुड़ा होता है। जब अनियंत्रित व्यावसायिक गतिविधियाँ, शराब, अशुद्ध आचरण और सांस्कृतिक असंवेदनशीलता तीर्थ क्षेत्र में प्रवेश करती हैं, तब केवल पर्यावरण नहीं बिगड़ता, बल्कि श्रद्धा भी घायल होती है। प्रयागराज जैसे नगर के लिए यह खतरा और भी गंभीर है, क्योंकि वह करोड़ों श्रद्धालुओं की आस्था का केंद्र है।
गंगा-यमुना संस्कृति केवल नदी-पूजन तक सीमित नहीं है। यह जीवन जीने की एक शैली है — सादगी, संयम, सेवा और समर्पण की शैली। प्रयागराज को संरक्षित तीर्थ क्षेत्र का दर्जा मिलने से यह सुनिश्चित हो सकेगा कि यहाँ की सांस्कृतिक पहचान, धार्मिक परंपराएँ और आध्यात्मिक वातावरण सुरक्षित रहें। जैसे कुछ देशों में ऐतिहासिक और धार्मिक नगरों के लिए विशेष कानून होते हैं, वैसे ही सनातन परंपरा भी यह अपेक्षा करती है कि उसके सबसे पवित्र नगरों को सामान्य शहरों की तरह न देखा जाए।
आज की यह माँग वास्तव में एक चेतावनी भी है और एक अवसर भी। चेतावनी इस बात की कि यदि हमने तीर्थों को केवल इवेंट और पर्यटन स्थल बना दिया, तो आने वाली पीढ़ियाँ उन्हें केवल तस्वीरों में देखेंगी, अनुभूति में नहीं। और अवसर इस बात का कि हम एक संतुलित मार्ग चुनें — जहाँ प्रशासन व्यवस्था बनाए, लेकिन धर्म अपनी आत्मा के साथ जीवित रहे। प्रयागराज को पूर्ण तीर्थ नगरी घोषित करना उसी संतुलन की ओर एक कदम हो सकता है।
यह विषय हमें सोचने पर मजबूर करता है कि क्या हम तीर्थों को केवल उपयोग की वस्तु मानते हैं, या उन्हें पूज्य धरोहर समझते हैं। सनातन धर्म में तीर्थ केवल जाने की जगह नहीं, बल्कि मन को शुद्ध करने का माध्यम होते हैं। यदि प्रयागराज की पवित्रता सुरक्षित रहती है, तो वह केवल एक नगर नहीं रहेगा — वह आने वाले समय में भी भारत की आध्यात्मिक दिशा को प्रकाश देता रहेगा। यही इस माँग का वास्तविक अर्थ है, और यही इसका सबसे गहरा संदेश भी।
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