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सती का देह-त्याग और शिव-पार्वती पुनर्मिलन की कथा की शुरुआत | सती, दक्ष यज्ञ और शक्ति पीठ

सती का देह-त्याग और शिव-पार्वती पुनर्मिलन की कथा की शुरुआत | सती, दक्ष यज्ञ और शक्ति पीठ

सती के देह–त्याग और भगवान शिव से परवर्ती जन्म में पार्वती रूप से पुनर्मिलन की शुरुआत

सती देह-त्याग, दक्ष यज्ञ और शक्ति-पीठों की स्थापना की कथा

नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।

आज मैं आपको सती के देह–त्याग और भगवान शिव परवर्ती जन्म में पार्वती रूप से पुनर्मिलन की शुरुआत की कथा सुना रहा हूँ |
प्राचीन काल में दक्ष प्रजापति, जो ब्रह्मा जी के मनु पुत्रों में से एक माने गए हैं, के अनेक कन्याएँ थीं। इन्हीं में से एक थीं सती, जो स्वयं भगवान शिव की उपासिका थीं। पुराणों के अनुसार सती ने शिव को ही अपने पति रूप में पाने का निश्चय किया और कठोर तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें स्वीकार किया, और सती का विवाह अत्यंत दिव्य रीति से कैलासपति शिव के साथ हुआ। परंतु दक्ष के मन में शिव के प्रति आदर नहीं था। वे यज्ञ, वैदिक कर्मकाण्ड और सामाजिक रूप से मान्य वैभव को ही बड़ा मानते थे, जबकि शिव विरक्त, औपचारिकता से रहित, श्मशान–वासी, नाग–भूषण और भस्म–लिप्त थे। इसी कारण दक्ष के भीतर शिव के प्रति एक प्रकार का अहंकार–मिश्रित तिरस्कार बना रहा।

कालांतर में दक्ष ने एक विशद महायज्ञ का आयोजन किया। पुराणों में आता है कि इस यज्ञ में सभी देवता, ऋषि, प्रजापति आदि को निमंत्रण दिया गया, पर भगवान शिव को जानबूझकर आमंत्रित नहीं किया गया। सती ने जब स्वर्गमार्ग में या अपनी सखियों, दूतों के माध्यम से सुना कि उनके पिता के यहाँ महान यज्ञ हो रहा है, तो उनके मन में स्वाभाविक ही अपने मायके जाने की इच्छा जागी। उन्होंने शिव जी से प्रार्थना की – “प्राणनाथ, पिता का घर है, भले निमंत्रण न आया हो, कन्या को तो अधिकार है कि वह अपने गृह जाए।” शिव ने अत्यंत शांत भाव से कहा कि जो स्थान वैरभाव से भरा हो, जहाँ उनका अपमान होता रहा हो, वहाँ सती का जाना उचित नहीं। पर सती ने पिता–गृह का मोह और जन्म–संबंध के आधार पर फिर भी जाने का आग्रह किया। अंततः शिव ने उन्हें रोका नहीं; सती अपनी सहचरियों सहित पिता के यज्ञ–स्थल पर पहुँचीं।

जब सती वहाँ पहुँचीं, तो उन्होंने देखा कि यज्ञ–मंडप में देव, ऋषि, प्रजापति, सब उपस्थित हैं, वेद–मंत्र गूँज रहे हैं, पर कहीं भी शिव के नाम का आदर नहीं, न उनका आसन, न उनका अर्घ्य। माँ की ओर देखा तो वे संकोच–मिश्रित स्नेह में थीं, परन्तु दक्ष के चेहरे पर अवमानना थी। सती के आने पर भी दक्ष ने उसे पुत्री के रूप में नहीं, मानो किसी अयोग्य दामाद की पत्नी के रूप में देखा। कुछ कथाओं में आता है कि दक्ष ने शिव को “अशोभनीय, अजातशत्रु, अवेदिक आचरण वाला” मानकर कटु वचन कहे; भागवत आदि में स्पष्ट भाव यह है कि शिव का अनादर और अपमान वहाँ के वातावरण में स्पष्ट था।

सती ने यह सब देखा, सुना और भीतर से टूट गईं। एक ओर पिता का पक्ष, दूसरी ओर अपने आराध्य पति का अपमान। उन्हें यह लगा कि उन्होंने शिव जैसे पूर्ण, शांत, परम–योगी पति को चुनकर कोई अपराध नहीं किया, फिर भी उनका कुल और पिता, शिव का अपमान कर रहे हैं – ऐसा जीवन उन्हें स्वीकार नहीं। पुराणों में आता है कि सती ने निश्चय किया कि वे इस शरीर को, जो दक्ष–कन्या के रूप में जन्मा, अब धारण नहीं रखेंगी। उन्होंने यज्ञ–अग्नि के समीप जाकर देवताओं, ऋषियों और समस्त सृष्टि को साक्षी मानकर कहा कि जहाँ मेरे प्रियतम शिव का अपमान हो, जहाँ उनके प्रति घृणा हो, वहाँ पुत्री, पत्नी या नाते के रूप में रहना भी अपराध है।

इसके बाद सती ने योग–अग्नि द्वारा देह–त्याग किया। कुछ ग्रंथों में वर्णन है कि वे ध्यान–स्थित होकर, प्राण को ऊर्ध्वगति देकर देह छोड़ती हैं; कुछ में यह भी आता है कि वे सीधे यज्ञ–अग्नि में प्रविष्ट हो जाती हैं – भाव एक ही है कि उन्होंने वह शरीर त्याग दिया जो दक्ष की कन्या के रूप में था। यह कोई भावावेश मात्र नहीं था, बल्कि स्पष्ट धर्म–निश्चय था – पति–भक्ति और शिव–समर्पण की सीमा, जहाँ वे अपने जन्म–घर और देह को भी त्याग देती हैं, पर शिव–अपमान स्वीकार नहीं करतीं।

जब यह समाचार कैलास पर पहुँचा, तो शिव के गणों ने और फिर स्वयं शिव ने यह समाचार सुना। भगवान शिव के भीतर शोक, करुणा, और क्रोध – तीनों एक साथ उठे। उन्होंने वीरभद्र और भयंकर गणों को उत्पन्न किया (कुछ पुराणों में वीरभद्र और भद्रकाली का उल्लेख आता है) और उन्हें आदेश दिया कि जाकर दक्ष के यज्ञ को नष्ट कर दें। वीरभद्र ने वहाँ पहुँचकर यज्ञ–मंडप को विध्वस्त किया, अनेक देवताओं को दंडित किया, और अंततः दक्ष का सिर भी काट दिया। बाद में देवताओं और ब्रह्मा आदि की प्रार्थना पर, शिव का क्रोध शांत हुआ। उन्होंने दक्ष को जीवित तो किया, पर उसका सिर बकरे का लगा दिया – इस रूप में दक्ष फिर से यज्ञ करने योग्य तो हुआ, पर उसका अहंकार टूटा हुआ था।

सती के देह–त्याग के बाद शिव ने सती की देह को अपने कंधे पर उठाया और आकाश–पथों में, पृथ्वी पर, पर्वतों–वनों में, व्यथित होकर विचरण किया – यह दृश्य दर्शाता है कि स्वयं महाकाल भी प्रेम में व्यथित हो सकता है। तब सृष्टि–व्यवस्था में बाधा आने लगी। विष्णु ने अपने सुदर्शन–चक्र से सती के मृत शरीर के अंग–अंग को विभक्त कर अलग–अलग स्थानों पर गिरा दिया, जिससे शिव की विरह–व्यथा का आवेग धीरे–धीरे टूटे और वे पुनः समाधि और तत्त्व–स्थिति में स्थित हो सकें। जहाँ–जहाँ सती के अंग, आभूषण या देह–अंश गिरे, वहाँ–वहाँ कालांतर में शक्ति–पीठ स्थापित हुए — जिनकी संख्या विभिन्न परंपराओं में भिन्न बताई जाती है, पर सामान्यत: 51 या 52 मानी जाती है। ये शक्ति–पीठ सती–शक्ति की उस अखंड उपस्थिति के प्रतीक हैं जो शरीर से परे है।

इसके बाद, सती स्वयं शक्ति–स्वरूपा थीं, अतः वे पुनः हिमवान और मेनका के यहाँ पार्वती रूप में प्रकट होती हैं। उसी पार्वती ने फिर से कठोर तप करके शिव को पुनः पति रूप में प्राप्त किया – यह आगे की कथा (शिव–पार्वती विवाह) में आती है, जो सती–देह–त्याग के पश्चात् शक्ति और शिव के पुनर्मिलन की अगली कड़ी है।

सती का यह प्रसंग सनातन परंपरा में यह दिखाता है कि –

  • शिव का अपमान जहाँ हो, वहाँ वास्तविक शिव–भक्त के लिए रहना असह्य है।
  • जन्म–घर, कुल–मान, सामाजिक प्रतिष्ठा से बड़ा है धर्म और आध्यात्मिक निष्ठा
  • और यह भी कि ईश्वर–तत्त्व भी प्रेम, वियोग और करुणा के आयामों से रहित नहीं; शिव का शोक, उनका विरह, और शक्ति का पुनर्जन्म – यह सब केवल दर्शन नहीं, बल्कि भक्ति का हृदय भी है।

स्रोत / ग्रंथ–संदर्भ (Reference):

यह प्रसंग मुख्य रूप से –

  • श्रीमद्भागवत महापुराण, चतुर्थ स्कन्ध – विशेषकर दक्ष–यज्ञ, सती–देह–त्याग, वीरभद्र प्रकट होने और यज्ञ–विध्वंस का विस्तृत वर्णन।
  • शिव पुराण, विद्याेश्वर संहिता और रुद्र–संहिता के भीतर दक्ष–यज्ञ और सती–कथा के विस्तृत अध्याय।
  • महाभारत, शांति पर्व में संदर्भ रूप से सती और शक्ति–पीठों से जुड़े संकेत।

यह कथा केवल पुराणिक इतिहास नहीं, बल्कि धर्म-निष्ठा, त्याग, प्रेम और अहंकार-भंग का जीवंत संदेश है। यदि आप शिव–शक्ति, शक्ति-पीठों और सती–पार्वती की लीलाओं को समझना चाहते हैं, तो इस लेख को अपने परिवार, मित्रों और भक्ति-रुचि रखने वाले युवाओं के साथ अवश्य साझा करें।

लेखक / Writer

तु ना रिं 🔱

प्रकाशन / Publish By

सनातन संवाद

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Labels: Sati Deh Tyag, सती देह त्याग कथा, Daksha Yajna Story, शक्ति पीठ, Shiv Shakti Prem, Sati Parvati Rebirth, Sanatan Katha, सनातन संवाद ब्लॉग

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