सेवा — सर्वोच्च साधना
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस सत्य को शब्द देने आया हूँ जिसे समझ लेने पर साधना स्वतः पूर्ण हो जाती है, भक्ति सहज हो जाती है, और मनुष्य के भीतर ईश्वर का प्रकाश स्वयं उतर आता है — सेवा ही सर्वोच्च साधना है।
जब हम ‘साधना’ कहते हैं, तो मन में तप, जप, ध्यान, योग, व्रत, मौन—इन सबकी छवि उभरती है। पर समय के साथ, जीवन के अनुभवों के साथ और ऋषियों के वचनों के प्रकाश में मनुष्य समझने लगता है कि साधना केवल जंगलों की गुफाओं में नहीं होती, न ही केवल ध्यान की अवस्था में। साधना का सर्वोत्तम रूप वह है जिसमें मनुष्य अपना अहंकार पिघला देता है, अपने स्वार्थ को पीछे रख देता है, और दूसरों के कल्याण को अपना धर्म बना लेता है। यही सेवा है, और यही सेवा मनुष्य को ईश्वर के सबसे निकट पहुँचा देती है।
ईश्वर को प्रसन्न करने के हजारों मार्ग बताए गए हैं—यज्ञ, मंत्र, तप, पूजा, व्रत, अनुष्ठान। परंतु शास्त्रों ने अत्यंत स्पष्ट शब्दों में कहा है कि जिस सेवा में स्वयं का त्याग हो, वही सर्वोच्च पूजा है। सेवा वह दीपक है जिसके प्रकाश में साधना का असली रूप दिखता है। बिना सेवा के साधना रेगिस्तान में एक सूखा पौधा है—जहाँ फूल नहीं खिल सकते।
सेवा का अर्थ केवल दान देना नहीं। दान तो सेवा का एक छोटा भाग है, सेवा उससे कहीं अधिक विस्तृत, गहरी और आध्यात्मिक है। सेवा का अर्थ है—किसी के जीवन में प्रकाश बन जाना। किसी के दुख को अपने हृदय में महसूस कर लेना। किसी रोते हुए चेहरे पर मुस्कान बन जाना। किसी थके हुए मन को आश्रय देना। किसी निराश आत्मा में उम्मीद जगाना। सेवा वह है जिसमें मनुष्य अपने अहं को छोड़ देता है और अपना हृदय खोल देता है।
हर युग में, हर धर्म में, हर शास्त्र में सेवा को सर्वोच्च स्थान मिला क्योंकि सेवा मनुष्य के भीतर छिपी करुणा को जीवंत करती है। करुणा ही वह मार्ग है जो मनुष्य को मानव से महामानव बनाती है और मानव से देवत्व की ओर ले जाती है। देवता इसलिए देवता नहीं हैं कि उनके पास कोई अलौकिक शक्ति है—वे इसलिए देवता हैं क्योंकि उनका प्रत्येक कर्म सेवा में समर्पित है।
राम ने वनवास स्वीकार किया, पर साथ में सेवाभाव लेकर चले—दुःखी के लिए सहारा, निर्बल के लिए शक्ति, और सत्य के लिए संकल्प।
कृष्ण ने कुरुक्षेत्र में केवल नीति नहीं दी, बल्कि पूरे जीवन सेवा करते रहे—मित्रों की, गोपियों की, अर्जुन की, द्रौपदी की।
हनुमान जी की महिमा इसलिए अपार है क्योंकि उनका हर श्वास, हर विचार, हर कर्म—सब कुछ सेवा था। उन्होंने शक्ति हासिल करने के लिए नहीं, सेवा करने के लिए जीया। इसलिए उन्हें 'संकटमोचन' कहा जाता है।
शास्त्र कहते हैं—
“परहित सरिस धरम नहि भाई।”
संसार में परोपकार से बड़ा कोई धर्म नहीं।
जब मनुष्य सेवा करता है, तब वह वास्तव में ईश्वर को छू लेता है। क्योंकि ईश्वर मंदिर में स्थिर मूर्ति नहीं, वे तो उन्हीं दिलों में धड़कते हैं जहाँ करुणा की लहर उठती है। किसी की भूख मिटाना ईश्वर को भोग लगाना है। किसी की पीड़ा दूर करना ईश्वर की पूजा है। किसी के आँसू पोंछना ही गीता, वेद और उपनिषद का सार समझना है।
सेवा साधना का वह स्वरूप है जिसमें मनुष्य को ध्यान भी मिलता है और मोक्ष भी।
सेवा में मन एकाग्र रहता है—भटकता नहीं।
सेवा में अहंकार टूटता है—वह टिक नहीं सकता।
सेवा में हृदय पवित्र होता है—मैल टिक नहीं पाता।
सेवा में आत्मा तेजवान होती है—अंधकार रह नहीं सकता।
जिसने सेवा कर ली, उसने बिना बोले मंत्र जप लिए।
जिसने सेवा कर ली, उसने बिना बैठे ध्यान कर लिया।
जिसने सेवा कर ली, उसने बिना लिखे शास्त्र समझ लिए।
सेवा का सबसे सुंदर रूप वह है जिसमें बदले में कुछ पाने की इच्छा न हो। मनुष्य का हृदय जितना खाली होता है अपेक्षाओं से, उतना ही भरा होता है दिव्यता से। अपेक्षा भरा हृदय कभी ईश्वर को धारण नहीं कर सकता, पर सेवा भरा हृदय स्वयं ईश्वर का आसन बन जाता है।
कभी-कभी लोग पूछते हैं—
“सेवा क्यों करनी चाहिए?”
उत्तर सरल है—
क्योंकि सेवा वही करती है जिसमें अभी भी मनुष्यत्व जीवित है।
और जिसका मनुष्यत्व बचा हुआ है, वह ईश्वर से दूर कैसा?
सेवा मनुष्य को बदल देती है। सेवा करने वाला धीरे-धीरे महसूस करता है कि जिस व्यक्ति की वह सहायता कर रहा है, वास्तव में वही व्यक्ति उसका गुरु बन रहा है। गरीब हमें दान करना नहीं सिखाते, वे हमें कृतज्ञ होना सिखाते हैं। बीमार हमें सेवा सीखाते हैं, वे हमें धैर्य और करुणा सिखाते हैं। दुखी हमें संवेदनशीलता सिखाते हैं। सेवा करने वाला जितना देता है, उससे कहीं अधिक प्राप्त करता है। यह सिद्धांत संसार के किसी व्यापार से नहीं मिलता—यह केवल सेवा से मिलता है।
जीवन में एक समय आता है जब मनुष्य समझता है कि प्रतिष्ठा, पद, धन, मान, अभिमान—सब कुछ क्षणिक है। समय सब कुछ छीन सकता है, पर सेवा का पुण्य कभी नहीं छीन सकता। सेवा ही वह बीज है जो हमेशा फल देता है। सेवा ही वह सम्पत्ति है जो जन्म-जन्मांतर तक साथ रहती है। सेवा ही वह प्रकाश है जिसे मृत्यु भी बुझा नहीं सकती।
सेवा में वह शक्ति है जो पापों को गलाकर व्यक्ति को शुद्ध कर देती है। जैसे अग्नि लोहे को लाल कर देती है, वैसे ही सेवा मनुष्य के भीतर की कठोरता को पिघला देती है। जो व्यक्ति सेवा करता है, उसकी आँखों में चमक आती है, उसकी वाणी में मिठास आती है, उसके हृदय में शांति उतरती है। ऐसी शांति किसी साधना, किसी तप, किसी योग से नहीं मिलती—यह केवल सेवा से मिलती है।
ईश्वर को प्रसन्न करने का सबसे सरल और सबसे पवित्र मार्ग यही है कि हम उनके बच्चों की सेवा करें। जब आप किसी भूखे व्यक्ति को भोजन देते हो, ईश्वर मुस्कुराते हैं। जब आप किसी थके हुए को पानी देते हो, ईश्वर हृदय भरकर आशीर्वाद देते हैं। जब आप किसी संकट में खड़े व्यक्ति को सहारा देते हो, ईश्वर स्वयं आपके जीवन में सहारा बनकर आते हैं।
इसीलिए कहा गया है—
“सेवा ही सर्वोच्च साधना है।”
क्योंकि सेवा ही वह मार्ग है जो सीधे ईश्वर के हृदय तक ले जाता है।
सेवा ही वह दीप है जो आत्मा के भीतर प्रकाश फैलाता है।
सेवा ही वह साधना है जिसमें मनुष्य खोकर भी स्वयं को पा लेता है।
और जिसने इस सत्य को समझ लिया—
उसके लिए साधना कठिन नहीं, सहज हो जाती है;
प्रार्थना केवल शब्द नहीं, जीवन बन जाती है;
ईश्वर सिर्फ मंदिर में नहीं, हर प्राणी में दिखने लगते हैं।
इस लेख का सम्पूर्ण कंटेंट लेखक तु ना रिं और सनातन संवाद के कॉपीराइट के अंतर्गत सुरक्षित है। बिना अनुमति इस लेख की नकल, पुनःप्रकाशन या डिजिटल/प्रिंट रूप में उपयोग निषिद्ध है। शैक्षिक और ज्ञानवर्धन हेतु साझा किया जा सकता है, पर स्रोत का उल्लेख आवश्यक है।
FAQ — अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न
- Q: सेवा ही सर्वोच्च साधना क्यों मानी जाती है?
A: क्योंकि सेवा में अहंकार टूटता है, करुणा जगती है और निःस्वार्थ भाव से किया गया काम सीधे ईश्वर के हृदय से जुड़ता है। - Q: क्या सेवा केवल दान ही है?
A: नहीं — दान सेवा का एक भाग है। सेवा में समय देना, सहानुभूति, श्रम, और दूसरों के कल्याण के लिए निःस्वार्थ प्रयास शामिल हैं। - Q: मैं कैसे सेवा से शुरू करूँ?
A: अपने नज़दीकी समुदाय, जरूरतमंद व्यक्ति, वृद्धाश्रम या स्थानीय सेवा समूहों से जुड़कर छोटे कदमों से शुरुआत करें।
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें