ब्रह्मा – देव का परिचय और उत्पत्ति
भाग 1: ब्रह्मा देव का परिचय और उत्पत्ति
सर्वप्रथम अनादि काल की गहनतम शून्यता में, जब न कोई समय था, न कोई स्थान, न ही कोई अस्तित्व, केवल शुद्ध चेतना का असीम व्यापक रूप ही प्रकट था। वही चेतना, जिसे हम ब्रह्म कहते हैं, अनन्त, निराकार और सर्वव्यापी, अपने एकांत में पूर्ण आनंद और शांति का अनुभव कर रही थी। उस चेतना की गहनता में अनगिनत संभावनाओं का सृजन गूँज रहा था, और उसी गहनतम ध्यान से ब्रह्मा का जन्म हुआ। वे न केवल सृष्टिकर्ता हैं, बल्कि वे स्वयं भी उसी ब्रह्म की अनुभूति और विस्तार हैं। वे किसी समय, रूप या आकार के बंधन में नहीं थे, किन्तु शुद्ध आत्मा और चेतना के रूप में प्रकट हुए।
पुराणों में वर्णित है कि ब्रह्मा का जन्म हिरण्यगर्भ से हुआ। यह हिरण्यगर्भ वह दिव्य अंडाकार स्वरूप था, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि की संभावनाएं निहित थीं। उस दिव्य गर्भ के भीतर ब्रह्मा, जो स्वयं चेतना के साक्षात रूप हैं, धीरे-धीरे प्रकट हुए। जब उन्होंने अपने नेत्र खोले, तो जगत की रचना का प्रथम दर्शन उनके समक्ष हुआ। उनका रूप अत्यंत तेजस्वी, चारों मुखों वाला और चारों दिशाओं में दृष्टि रखने वाला था, जिससे वे समय, स्थान और चेतना के सभी पहलुओं को देख सकते थे। उनकी आठ भुजाएं और विविध दिव्य वस्त्र, उनकी शक्ति और सार्वभौमिकता का प्रतीक थीं।
ब्रह्मा के प्रत्येक मुख से वेदों का उद्घोष हुआ। उनके मुख से ‘ॐ’ का दिव्य उच्चारण हुआ, और उसी उच्चारण से सृष्टि में व्यवस्थित होने वाले तत्वों, गति और जीवन के आधार की उत्पत्ति हुई। उनके प्रत्येक मुख से एक-एक वेद का उद्भव हुआ, जिससे मनुष्य और देवता, यज्ञ और साधना, ज्ञान और कर्म का मार्ग स्पष्ट हुआ। इस प्रकार ब्रह्मा केवल सृष्टिकर्ता ही नहीं, वरन् वे ज्ञान के प्राथमिक स्रोत भी हैं।
ब्रह्मा के चार मुखों का अर्थ केवल चार दिशाओं की दृष्टि नहीं, बल्कि चार वेदों – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद – के ज्ञान का प्रचार भी है। ऋग्वेद से वे मनुष्य की भावनाओं और कर्मों का बोध कराते हैं। यजुर्वेद से यज्ञ और कर्मकांड की प्रणाली स्पष्ट होती है। सामवेद से संगीत, भक्ति और ध्यान की शक्ति प्रकट होती है। और अथर्ववेद से आयु, चिकित्सा और संसार की व्यावहारिक ऊर्जा का ज्ञान मिलता है। इन चारों मुखों से ब्रह्मा ने सृष्टि को न केवल जन्म दिया, बल्कि उसे ज्ञान, विवेक और धर्म के मार्ग पर स्थिर किया।
ब्रह्मा के शरीर से प्रकाश का अद्भुत विस्तार हुआ। उनका शरीर ही चारों दिशाओं में फैलता गया, और उसी प्रकाश में प्रथम तत्व – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश – का उद्भव हुआ। जब ब्रह्मा ने अपने दिव्य हाथों से सृष्टि के प्रथम रूपों का आविष्कार किया, तो पृथ्वी पर पर्वत, नदियाँ, समुद्र और आकाश का विस्तार हुआ। जल से जीवन की संभावनाएँ उत्पन्न हुईं। अग्नि ने ताप और परिवर्तन की प्रक्रिया को जन्म दिया। वायु ने गति और जीवन की ऊर्जा दी। और आकाश ने व्यापकता, अनंतता और दिव्यता का बोध कराया।
ब्रह्मा ने स्वयं को विभिन्न रूपों में विभक्त किया, ताकि सृष्टि में विविध प्राणी और जीव-जंतुओं का निर्माण संभव हो सके। उन्होंने मानव, असुर, देव, राक्षस और अन्य जीवों का प्रारंभ किया। प्रत्येक प्राणी में उन्होंने अपनी चेतना का अंश प्रवाहित किया, जिससे प्रत्येक जीव में आत्मा का प्रकाश और चेतना का बीज स्थापित हुआ।
पुराणों में कथा है कि ब्रह्मा ने प्रथम यज्ञ किया, जिसे हिरण्यगर्भ यज्ञ कहा गया। इस यज्ञ के माध्यम से उन्होंने सृष्टि में धर्म, आचार और कर्म का मार्ग स्थापित किया। यज्ञ के दौरान उनके मुखों से उत्पन्न मंत्रों ने सभी लोकों में ऊर्जा का संचार किया। देवता, ऋषि और मनुष्य, सभी उसी यज्ञ के प्रभाव से धर्म के पथ पर अग्रसर हुए। यही यज्ञ ब्रह्मा की सृष्टि की दिव्यता और उनके ज्ञान का प्रथम प्रमाण है।
ब्रह्मा की चार भुजाओं में से प्रत्येक ने विशिष्ट कार्य किए। एक भुजा से उन्होंने जीवनदायिनी वनस्पतियाँ और पेड़-पौधे उत्पन्न किए। दूसरी भुजा से उन्होंने मानव और पशु जाति का निर्माण किया। तीसरी भुजा से उन्होंने यज्ञ और साधना के लिए मंत्र और विधियाँ संजोई। और चौथी भुजा से उन्होंने समय, काल और युगों का नियमन किया, ताकि सृष्टि में व्यवस्था और संतुलन बना रहे।
उनके शरीर से उत्पन्न प्रकाश और शक्ति ने सृष्टि में स्थिरता, गति और जीवन का मार्ग प्रशस्त किया। वे केवल सृष्टिकर्ता नहीं, वरन् उसका निरीक्षक, संरक्षक और मार्गदर्शक भी हैं। उन्होंने न केवल जीवों को जन्म दिया, बल्कि उन्हें ज्ञान, विवेक और धर्म का मार्ग भी दिखाया। ब्रह्मा के कारण ही सृष्टि में सत्य, धर्म, कर्म और मोक्ष का मार्ग स्थापित हुआ।
ब्रह्मा का जन्म ही सृष्टि का प्रारंभिक बिंदु नहीं था, बल्कि उनके माध्यम से जीवन, चेतना और धर्म का उद्भव हुआ। वे स्वयं अनादि हैं, परंतु उन्होंने अपने तेज, ज्ञान और शक्ति के माध्यम से सृष्टि को विस्तार दिया। उनके मुखों से उत्पन्न मंत्रों और यज्ञों ने न केवल लोकों का सृजन किया, बल्कि उन्हें स्थिरता, सौंदर्य और दिव्यता दी।
इस प्रकार ब्रह्मा की कथा हमें यह सिखाती है कि सृष्टि केवल भौतिक रूप से नहीं, बल्कि ज्ञान, चेतना और धर्म के आधार पर भी प्रकट होती है। ब्रह्मा का स्वरूप, उनकी सृष्टि शक्ति, उनके यज्ञ और उनके ज्ञान का विस्तार हमें यह याद दिलाता है कि जीवन का मूल आधार केवल कर्म या भौतिकता नहीं, बल्कि चेतना और धर्म है।
पुराणों में और वेदों में अनेक कथाएं हैं जो ब्रह्मा के जीवन, उनके सृष्टिकर्म, ऋषियों और देवताओं के साथ उनके संवाद, यज्ञ और साधना का विवरण देती हैं। इन कथाओं में ब्रह्मा का चरित्र, उनका ज्ञान और उनकी शक्ति निरंतर एक प्रवाह में हमें धर्म, जीवन और सृष्टि की वास्तविकता का अनुभव कराता है।
ब्रह्मा की उत्पत्ति और प्रारंभिक सृष्टि का यह भाग हमें यह समझाता है कि वे केवल सृष्टिकर्ता नहीं, बल्कि सृष्टि के संरक्षक, मार्गदर्शक और ज्ञान का आधार हैं। उनका तेज, उनकी दृष्टि, उनके यज्ञ और उनके मंत्र सृष्टि को स्थिर और सुंदर बनाते हैं। इस प्रकार ब्रह्मा देव का परिचय हमें सिखाता है कि सृष्टि का मूल आधार केवल भौतिक अस्तित्व नहीं, बल्कि ज्ञान, धर्म और चेतना है, और यही ब्रह्मा की दिव्यता का सार है।
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