ॐ यज्ञ और अग्नि – Divine Energy and Pratham Indra
ॐ अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं ऋत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥
जिस क्षण यह वैदिक वाणी प्रकट होती है, उसी क्षण यह स्पष्ट हो जाता है कि मानव ने ईश्वर को सबसे पहले किस रूप में पहचाना — अग्नि के रूप में, और अग्नि को किस रूप में प्रतिष्ठित किया — यज्ञ के रूप में, और वही यज्ञ आगे चलकर देवताओं का अधिपति कहे जाने वाले “प्रथम इन्द्र” के रूप में उदित हुआ; क्योंकि ऋग्वेद के स्वयं देवताओं ने स्वीकार किया — “यज्ञो वै विश्वस्य नाभिः” — अर्थात यज्ञ ही सम्पूर्ण सृष्टि का केंद्र है, और इसी यज्ञ की अग्नि से ही इन्द्र का तेज उत्पन्न हुआ; वस्तुतः इन्द्र कोई व्यक्ति-मात्र नहीं बल्कि ऊर्जा, प्राण, पराक्रम और वर्षा के रूप में प्रकट हुआ यज्ञ का ही प्रथम फल था, इसलिए वैदिक ऋषियों ने उसे “यजः प्रथमः इन्द्रः” कहा — अर्थात जो यज्ञ का प्रथम विभव है वही इन्द्र है; जब प्रारम्भ में न दिन था, न रात्रि, न सूर्य, न चन्द्रमा, न आकाश, न पृथ्वी — तब वह परम पुरुष जो निर्गुण था, उसने अपने भीतर ही एक स्पंदन किया, वही स्पंदन “स्वाहा” के आह्वान के रूप में भासित हुआ और उसी स्पंदन से प्रथम ज्वाला प्रकट हुई — वही ज्वाला अग्नि थी, वही अग्नि यज्ञ बनी, वही यज्ञ देवों का आहार, ऋषियों का आधार, सृष्टि का विस्तार, और वही यज्ञ रूप अग्नि प्रथम इन्द्र बनकर प्रकट हुई; क्योंकि इन्द्र को मेघों का स्वामी कहा जाता है, वह जल वर्षाता है, जीवन देता है — परंतु वर्षा तब तक नहीं होती जब तक गगन में अग्नि का स्पर्श न हो, आज भी बादलों के टकराने से जो विद्युत उत्पन्न होती है, वह मूलतः अग्नि ही है और उसी विद्युत से वर्षा होती है — यही वेद का संकेत है कि इन्द्र = विद्युत = अग्नि = यज्ञ, इसलिए जो अग्नि में आहुति देता है, वह केवल देव-तृप्ति नहीं करता बल्कि बादलों को प्रेरित करता है, और जब बादल गर्जते हैं तो ऋषि कहते हैं — “शृणुते इन्द्रः स्वाहा” — अर्थात सुनो, यह इन्द्र की पुकार है जो यज्ञ की आहुति का उत्तर है; यही कारण है कि यज्ञ को देवताओं का पिता कहा गया — “यज्ञो वै देवानां पिता” — यानी देवों की उत्पत्ति यज्ञ से हुई, और जब देवों के भी पिता यज्ञ हैं, तो उनका राजा अर्थात इन्द्र उससे पहले कैसे हो सकता है? इसलिए ऋषि स्पष्ट घोषणा करते हैं कि “यज्ञः एव प्रथमः इन्द्रः”; इन्द्रत्व कोई पद नहीं बल्कि यज्ञ से उत्पन्न शक्ति की उपाधि है, जिसे प्राप्त कर कोई भी देव, मानव अथवा ऋषि इन्द्र हो सकता है; जैसे मनु ने यज्ञ किया तो वे स्वायंभुव इन्द्र कहे गए, त्रिशंकु ने यज्ञ किया तो वे स्वर्ग में इन्द्रतुल्य प्रतिष्ठित हुए, दशरथ ने पुत्रेष्ठि यज्ञ किया तो राम प्रकट हुए, स्वयं राम ने अश्वमेध यज्ञ किया तो सकल देवगण उपस्थित हुए, युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तो उनके समक्ष स्वयं इन्द्र ने उपस्थिति दर्ज कराई, यह सब प्रमाण बताते हैं कि इन्द्र हमेशा यज्ञ से प्रसन्न नहीं होता बल्कि यज्ञ स्वयं इन्द्र को उत्पन्न करता है, क्योंकि जहां अग्नि है, वहां देवता हैं, और जहां देवता हैं वहां इन्द्र का राज्य है — परंतु अग्नि से पहले कोई देवता नहीं, इसलिए अग्नि ही देवों की जननी और अग्नि में ही सबसे पहले इन्द्र का तेज, वज्र का उदय, वर्षा का संकल्प और संरक्षण का धर्म छिपा होता है; जब मनुष्य ने पहली बार भेंट स्वरूप किसी फल, जंगली अन्न, या पशु को अग्नि में डाला तो उसे यह अनुभव हुआ कि इस अग्नि के माध्यम से मेरी भेंट अदृश्य लोक तक पहुँचती है, वही अनुभव यज्ञ की पहली आहुति बनी, और जब वह लौ ऊपर उठकर आकाश को स्पर्श करने लगी तो वही लौ इन्द्र की वज्ररेखा बन गई; ऋषियों ने कहा — “अग्निः इन्द्रवत् बलवान् अस्ति” — अर्थात अग्नि में वही शक्ति है जो इन्द्र में, बल्कि आगे कहा — “इन्द्रः अग्निर् यज्ञः” — यानी इन्द्र और अग्नि दोनों यज्ञ के ही रूपान्तरण हैं; इसका अर्थ यह हुआ कि यदि मानव यज्ञ करता है तो वह अग्नि को प्रज्वलित करता है, अग्नि इन्द्रत्व उत्पन्न करती है, इन्द्र जल लाता है, जल अन्न को जन्म देता है, अन्न जीवन को, और जीवन पुनः यज्ञ को — इस प्रकार यज्ञ ही सृष्टि का मूलगामी चक्र है, और जो इस चक्र को चलाता है वही इन्द्र है, चाहे वह देव हो, ऋषि हो, राजा हो या साधक हो; इसलिए भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने भी कहा — “सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाच प्रजापतिः” — अर्थात प्रजापति ने सृष्टि करते समय ही यह कह दिया था कि सृष्टि यज्ञ के साथ ही फलती-फूलती है, और उस यज्ञ को चलाने वाला जो भी है वही इन्द्र है; पुराणों में वर्णन आता है कि जब असुरों ने देवों पर आक्रमण किया तो देव घबरा कर ब्रह्मा के शरण में गए, तब ब्रह्मा ने कहा — “यज्ञ करो, यज्ञ से अधिक कोई अस्त्र नहीं”, और जब यज्ञ किया गया तो उसकी अग्नि से एक तेजस्वी पुरुष प्रकट हुआ जिसके हाथ में वज्र था — वही इन्द्र बनकर असुरों का संहार करता है; इसका तात्पर्य यह है कि इन्द्र बाहर का देवता नहीं बल्कि यज्ञ से उत्पन्न चेतना है, जो धर्म की रक्षा के लिए युद्ध करती है, वर्षा बनकर जीवन देती है, मेघों में गूँज बनकर गर्जना करती है; इसलिए जब भी बादल गरजते हैं, तो वास्तव में आकाश में यज्ञ की आहुति जल रही होती है, और जब बिजली चमकती है तो समझना चाहिए कि इन्द्र का वज्र उसी यज्ञाग्नि की ज्वाला से निर्मित है; अतः जो व्यक्ति यज्ञ करता है, वह देवताओं को प्रसन्न नहीं करता बल्कि स्वयं इन्द्र बन जाता है, क्योंकि भौतिक जगत में भी जिस मनुष्य के भीतर पराक्रम, त्याग, जल देने की प्रवृत्ति, संरक्षण की भावना, अधर्म के प्रति उद्वेग और धर्म की स्थापना का संकल्प जागृत हो — वही इन्द्र है; इसलिए वेदों ने मनुष्य से यह नहीं कहा कि “इन्द्र की पूजा करो” बल्कि यह कहा कि “यज्ञ करो और इन्द्र बनो”, इसलिए यज्ञ केवल अग्नि में घी डालना नहीं बल्कि कर्म, भावना, समर्पण और उत्सर्ग की सम्पूर्ण प्रक्रिया है; जब मनुष्य अपने भीतर के स्वार्थ को आहुति देता है तो उसका अहंकार भस्म हो जाता है, वही भस्म होकर वज्रवत् बल देता है, वही बल इन्द्रत्व है; इसलिए जिस दिन तुमने अपने भीतर की कामना को अग्नि में डाल दिया, उसी दिन तुम यजमान नहीं रहे, तुम स्वयं यज्ञ बन गए, और जो यज्ञ है वही प्रथम इन्द्र है; यही सनातन सत्य है जिसे ऋषियों ने अनुभव किया, पुराणों ने कथा रूप में बताया, और जिसे आज भी वर्षा की पहली बूंद और अग्नि की पहली चिंगारी हमें स्मरण दिलाती है; इसलिए यदि पूछो कि इन्द्र कौन? तो उत्तर मिलेगा — जहाँ यज्ञ है वहाँ इन्द्र है, और यदि पूछो कि पहले कौन — इन्द्र या यज्ञ? — तो उत्तर सदा यही रहेगा — यजः प्रथमः इन्द्रः ॥
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