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ब्रह्मा देव का सृजन और हिरण्यगर्भ में उत्पत्ति

ब्रह्मा देव का सृजन और हिरण्यगर्भ में उत्पत्ति | Sanatan Sanvad

समय के आदि में ब्रह्मा देव का जागरण और सृष्टि की उत्पत्ति

Brahma Awakening in Hiranyagarbha

समय के आदि में जब ब्रह्मा ने अपने नेत्र खोले और प्रथम बार स्वयं को विराट शून्यता के मध्य खड़े पाया, तब उन्होंने अनुभव किया कि सृष्टि केवल रचना नहीं है, वह एक उत्तरदायित्व है, एक अनंत प्रवाह है जिसमें सृजनकर्ता को स्वयं भी बहना पड़ता है। हिरण्यगर्भ से प्रकट होकर वे जब चहुंओर दृष्टि डालते हैं तो उन्हें न भूमि दिखती है, न आकाश, न जल और न ही दिशा का बोध। सब कुछ केवल एक विस्तीर्ण निर्वात, एक मौन समुद्र। उनकी चारों मुखों में से प्रत्येक अलग दिशा में देखना चाहता है, पर दिशा कहाँ थी? दिशा तो तब उत्पन्न होती है जब किसी एक बिंदु को आधार माना जाए; यहाँ न कोई बिंदु था, न केंद्र, न सीमा।

तब ब्रह्मा ने अपने भीतर झाँका, और अनुभव किया कि जो बाह्य जगत में नहीं है, वह भीतर है — वही चेतना, वही प्रकाश जो उन्हें जन्म देकर खड़ा कर चुका है, वही उनकी यात्रा का मार्ग भी बनेगा। उन्होंने प्रथम बार ध्यान में प्रवेश किया, और ध्यान के गर्भ से जो प्रथम कल्पना प्रकट हुई वह थी भूमि की। उन्होंने सोचा — यदि मैं ठहर जाऊँ, यदि मेरे लिए एक आधार हो, तो मैं आरंभ कर सकूँ। उसी संकल्प के साथ उनके चरणों के नीचे एक विशाल कमल प्रकट हुआ, स्वर्णाभ, सुगंधित और सहस्रदल युक्त। यह कमल केवल ठहरने का आसन नहीं था, यह स्वयं सृष्टि का प्रतीक था — स्थिरता और सौंदर्य का संगम। ब्रह्मा उस कमल पर स्थित हुए और वहीं से उन्होंने सृष्टि की योजना का प्रथम ताना-बाना बुनना शुरू किया।

उन्होंने आकाश की कल्पना की — एक ऐसा क्षेत्र जहाँ सब कुछ समा सके, जहाँ गति और विस्तार संभव। उनकी कल्पना से आकाश तत्व उत्पन्न हुआ, अदृश्य किन्तु व्यापक। फिर उन्होंने उस आकाश में स्पंदन की इच्छा की, और उसी इच्छा से वायु प्रकट हुई, जो गति की प्रतीक थी। वायु से घर्षण हुआ, और उस घर्षण से अग्नि की उत्पत्ति हुई — पहली चमक, पहला ताप, पहला रूप। अग्नि से द्रवत्व की आकांक्षा हुई, और उससे जल प्रकट हुआ। जल बहा तो उसने स्थिर होने की अभिलाषा की, और वहीं से पृथ्वी का जन्म हुआ। यह पाँचों तत्व जब उत्पन्न हुए तो ब्रह्मा ने देखा कि उनकी उपस्थिति तो है, पर वे असम्बद्ध हैं, एक दूसरे से अनभिज्ञ, अलग-अलग दिशाओं में फैलते हुए जैसे अनंत में विलीन होना चाहते हों। तब उन्होंने प्रथम बार नियम की कल्पना की — ऋत, अर्थात् वह व्यवस्था जिससे सब कुछ संतुलित और संगठित हो। ऋत की स्थापना होते ही तत्वों ने परस्पर संवाद करना शुरू किया। पृथ्वी ने जल को अपने ऊपर स्थिर किया, जल ने अग्नि को रूप दिया, अग्नि ने वायु को गति दी, और वायु ने आकाश में गूंज पैदा की। वह गूंज ही प्रथम ध्वनि थी —

ॐ के उच्चारण से ब्रह्मा के भीतर एक नई ऊर्जा उत्पन्न हुई। उन्होंने देखा कि अब सृष्टि स्थिर नहीं रह सकती, उसे जीवन चाहिए, उसे चेतना चाहिए। उन्होंने अपनी श्वास रोककर यह विचार किया — क्या मैं स्वयं को विभक्त करूं? क्या मैं अपने ही अंशों से जीवों को जन्म दूँ? और तभी उनके हृदय से एक सूक्ष्म स्पंदन उठा, और वह स्पंदन रूपांतरित होकर मन में बदल गया। मन ही वह सेतु था जो चेतना और पदार्थ के बीच संपर्क स्थापित करने वाला था। मन से वचन निकला, वचन से कर्म उत्पन्न हुआ, और कर्म से जीव बनने लगे।

परंतु जीवों के निर्माण के लिए केवल इच्छा पर्याप्त नहीं थी। ब्रह्मा ने अपने चार मुखों से चार अलग-अलग स्वर में वेदों का उच्चारण किया। एक मुख से उन्होंने ऋग्वेद का पाठ प्रारंभ किया — स्तुति और प्रार्थना का गान। दूसरे मुख से यजुर्वेद — कर्मकांड और यज्ञ की विधि। तीसरे से सामवेद — स्वर और संगीत की ध्वनि। चौथे से अथर्ववेद — औषधि, सुरक्षा और रहस्य। ये चारों वेद केवल शब्द नहीं थे, वे नियम थे, मार्ग थे, ऊर्जा के प्रवाह थे। इनसे सृष्टि को दिशा मिलने लगी।

अब ब्रह्मा ने स्थूल रचना की ओर कदम बढ़ाया। उन्होंने पर्वतों की कल्पना की, और आकाश से अग्नि की धाराएँ पृथ्वी पर गिरीं तो वे ठोस बनकर मेरु में परिवर्तित हुईं — सृष्टि का प्रथम पर्वत, जो ध्रुव की भाँति अचल था। उसके चारों ओर छोटे-छोटे पर्वत उत्पन्न हुए — मंदर, विंध्य, हिमवान। इन पर्वतों के बीच गहराइयाँ बनीं, और वहाँ जल भर गया, जिसने समुद्रों का रूप ले लिया — क्षीरसागर, लवणसागर, सरितसागर। फिर जल से बादल उठे, वर्षा हुई, और पृथ्वी पर हरियाली फैल गई। वृक्ष प्रकट हुए — प्रथम वृक्ष था कल्पवृक्ष, फिर पारिजात, अश्वत्थ, न्यग्रोध, नीम, वट और असंख्य वनस्पतियाँ। उनके भीतर औषधि, रस, सुगंध और जीवनदायिनी शक्ति विद्यमान थी।

सृष्टि अब रूप लेने लगी थी, पर निर्जीव वस्तुओं का विस्तार भर था। जीवन का संचार अभी शेष था। ब्रह्मा ने अपने मन में जीवों के प्रकार रचे — स्थावर (जो स्थिर हों), जंगम (जो चल सकें), तिर्यक् (जो तिरछे अर्थात् क्षैतिज गति से चलें), मानव (जो खड़े होकर सोचें), देव (जो प्रकाश में निवास करें), असुर (जो घनेपन में शक्ति खोजें)। इन प्रकारों के अनुसार उन्होंने अपने शरीर से विविध रूप उत्पन्न किए। उनके स्वेद से पशु, उनके श्वास से पक्षी, उनके दृष्टि से देवता, उनके भ्रूभंग से असुर, उनके हृदय से ऋषि, और उनके मनन से मनुष्य उतपन्न हुए। ये सभी जीव विभिन्न लोकों में फैलने लगे। देव स्वर्ग में गए, असुर पाताल में, मनुष्य पृथ्वी पर, ऋषि तपस्थानों में, पशु और पक्षी वनप्रदेशों में।

सृष्टि अब पूर्ण प्रतीत होने लगी थी, पर ब्रह्मा ने देखा — यह सब चल तो रहा है, पर दिशाहीन है। प्रत्येक जीव अपने स्वभाव के अनुसार गति कर रहा है, पर कोई धर्म नहीं, कोई संयम नहीं। उन्होंने समझा — बिना नियम के सृष्टि केवल अस्तित्व का फैलाव है, जीवन नहीं। और तभी उन्होंने प्रथम बार धर्म को पुकारा।

धर्म एक दिव्य पुरुष के रूप में प्रकट हुए, हाथ में दण्ड और पुस्तक लिए। उन्होंने ब्रह्मा के समक्ष प्रणाम किया और कहा — “प्रभो, मैं आपके स्मरण से ही उत्पन्न हुआ हूँ। अब आप मुझे आदेश दें, मैं किस प्रकार इस सृष्टि को संचालित करूँ?” ब्रह्मा ने कहा — “सभी जीवों के लिए उनके स्वभाव के अनुसार मार्ग निर्धारित करो, जिससे वे संतुलित रहें, दूसरों के अधिकार का उल्लंघन न करें, और अपने भीतर स्थित आत्मा की ज्योति को पहचान सकें।” धर्म ने प्रणाम किया और सब लोकों में जाकर अपने नियम स्थापित कर दिए। देवताओं के लिए *सत्य और स्थिरता*, असुरों के लिए *बल और मर्यादा*, मनुष्यों के लिए *कर्म और फल*, ऋषियों के लिए *तप और ज्ञान*, पशु-पक्षियों के लिए *सजातीय प्रेम और रक्षा*, वनस्पतियों के लिए *विकास और सेवा* — अब व्यवस्था स्थापित हो गई।

परंतु व्यवस्था के साथ ही संघर्ष भी उत्पन्न हुआ। देव और असुर, प्रकाश और अंधकार, ताप और शीत, सुख और दुःख — ये द्वन्द्व स्वाभाविक थे। ब्रह्मा ने समझा कि यह संघर्ष भी आवश्यक है, क्योंकि बिना विरोध के विकास संभव नहीं। तब उन्होंने प्रथम बार काल की रचना की — समय का प्रवाह। समय ने सृष्टि को गति दी। दिन और रात बने, ऋतुएँ बनीं, युगों का चक्र आरंभ हुआ। सत्ययुग में धर्म पूर्ण रूप में खड़ा रहा, त्रेतायुग में थोड़ा झुका, द्वापर में दुर्बल हुआ और कलियुग में एक पैर पर खड़ा रह गया। समय के साथ ही जन्म, वृद्धि, क्षय और मृत्यु का क्रम स्थापित हुआ। अब सृष्टि केवल बनी नहीं, चलने लगी।

और इस चलन में ब्रह्मा ने देखा — कुछ सुंदर है, कुछ भयावह; कुछ कोमल है, कुछ प्रचंड; कुछ टिकता है, कुछ मिट जाता है। वह समझ गए कि सृष्टि स्थिर नहीं रह सकती। उसे निरंतर परिवर्तन चाहिए। परिवर्तन ही उसका सौंदर्य है। तभी उन्होंने मन में कहा — “अब मैं सृष्टि को छोड़ दूँगा, वह स्वयं चलेगी। मैं केवल उसका साक्षी बनकर उसे देखूँगा।” और वहीं से ब्रह्मा सृष्टिकर्ता से निरीक्षक बने। वे लोकों के ऊपर स्थित ब्रह्मलोक में जाकर विराजमान हुए, जहाँ से वे सब कुछ देख सकते थे।

परंतु उनकी सृजन-यात्रा यहीं समाप्त नहीं हुई। प्रत्येक कल्प के अंत में जब सृष्टि लय को प्राप्त होती, तो वे पुनः ध्यान में बैठ जाते, और पुनः सृष्टि का निर्माण प्रारंभ करते। यह उनका अनंत चक्र है — सृजन, निरीक्षण, विसर्जन, और पुनः सृजन


Author/Writer: तुनारिं
Published by: सनातन संवाद © 2025

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