धनतेरस: दीपावली का दूसरा स्पंदन और साधनों का पूजन
धनतेरस वह क्षण है जब दीपावली का दूसरा स्पंदन प्रकट होता है—पहले दिन गौ के प्रति कृतज्ञता का दीप प्रज्वलित होता है और दूसरे दिन मनुष्य अपने जीवनोपयोगी साधनों, स्वास्थ्य और समृद्धि के मूल तत्वों को स्मरण करता है। आज लोग इसे केवल ख़रीदारी, सोना-चाँदी और बर्तन लेने से जोड़कर देखते हैं, लेकिन यदि स्मृति की परतों को हटाकर देखें तो यह दिन उतना ही प्राचीन है जितनी मनुष्य की पहली धातु-संस्कृति और औषधि-चेतना।
‘धनतेरस’ शब्द स्वयं दो तत्त्वों का संगम है—‘धन’ और ‘त्रयोदशी’। पर यहाँ धन को मुद्रा या भूषण मत समझिए; वैदिक काल में ‘धन’ का अर्थ था—अन्न, औषधि, धातु, गौ, सुवर्ण, आयुष्य और आरोग्य। यह दिन कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि पर आता है, और इस तिथि का संबंध भगवान धन्वंतरि से माना गया है, जो देवों के वैद्य कहे गए हैं। किंतु यह कथा भी केवल पौराणिक आख्यान भर नहीं है; इसके पीछे उस काल की जीवित वास्तविकता छिपी है जब शरीर, धातु, औजार और औषधि का शोधन वर्ष समाप्ति के समय अनिवार्य था।
सोचिए, वर्षा ऋतु अभी गुज़री है—नमी ने अनाज को प्रभावित किया होगा, धातु-उपकरणों पर जंग लगी होगी, जलराशि के कारण घरों में कीटाणु और रोगों की संभावना बढ़ गई होगी। जब शरद की शीतलता जमती है, तब मनुष्य अपने शरीर को भी नई ऊर्जा के लिए तैयार करता है। आयुर्वेद में यह समय ‘अग्नि’ को प्रज्वलित करने, पाचन को स्थिर करने और औषध-स्नेह से काया को शुद्ध करने का होता है। धन्वंतरि का समुद्र से प्राकट्य, हाथ में अमृत-कलश धारण करना—यह केवल कथा नहीं, यह संकेत है कि यह काल स्वास्थ्य, औषधि, धातु-शोधन और जीवन-सुरक्षा के लिए अत्यंत उपयुक्त है।
पुराने समय में गृहस्थ इसी दिन अपने कृषियंत्र, हल, फावड़ा, लोहे-सोने-मिट्टी के पात्र, अग्निहोत्र के बर्तन, रसोई के उपकरण, और यहाँ तक कि अस्त्र-शस्त्र भी शुद्ध करते थे। उन्हें तैल-लेप दिया जाता, धूप-दीप दिखाए जाते और अग्नि के समक्ष नमन किया जाता। स्त्रियाँ अनाज की कुटाई-पिसाई के औजार (ओखली-मूसल) को अभिषेक करतीं, पुरुष हल और बैलों की रस्सियों को नवरेशमी या घास के पवित्र बंधन से बदलते। यह सब इसलिए कि नई ऋतु में प्रवेश करते समय जीवन की मूल आधारशिलाएँ पवित्र हों।
आज लोग जो कहते हैं कि धनतेरस को ‘बर्तन खरीदना शुभ है’, उसका मूल कारण यह नहीं कि बाज़ार में सौदा करना परंपरा है, बल्कि इसलिए कि मिट्टी के पात्र, धातु के बर्तन, रसोई के साधन और औजार उसी समय नए बनाए या सुधारे जाते थे। कई कुम्हार और लोहाकार इसी तिथि से अपना नया कार्यारम्भ करते थे। गृहिणियाँ पुराने टूटे-फूटे बर्तनों को बदलतीं, लेकिन उनमें भी उपयोगी भाग को अलग रखकर उसे पुनः प्रयोग में लातीं। यह दिन था ‘संसाधनों की शुद्धि’ का, ‘घर की देह को नवजीवन देने’ का।
धनतेरस का एक और आयाम लक्ष्मी से जुड़ता है, पर लक्ष्मी को केवल स्वर्ण की देवी कह देना धर्म और बुद्धि दोनों से चूक है। लक्ष्मी का अर्थ था—धान्य, स्थैर्य, ऊर्जा, स्थूल-सुख और सूक्ष्म-शक्ति। इसी दिन दीप जलाकर घर के कोनों, अनाज-कोठारों, कुओं और गौशालाओं में रोशनी की जाती थी ताकि अंधकार में छिपे जीव, कीट या विषाक्तता हट सके। अन्न भंडार में दीप रखना किसी देवी की आराधना नहीं, बल्कि कृतज्ञता और संरक्षण का प्रतीक था।
जो लोग आज दीपक के नीचे चांदी का सिक्का रखते हैं, उन्हें यह स्मरण नहीं कि इस क्रिया की जड़ वैसी पूजा में नहीं, बल्कि उस भाव में है जहाँ मनुष्य कहता था—“जो कुछ मेरे पास है, वह सूर्य, पृथ्वी और अग्नि की देन है। मैं इस धातु को भी देवत्व मानकर उसके प्रति संयम रखूँगा।” धातु का सम्मान इसलिए कि उससे औजार बनते थे, औजारों से कृषि चलती थी, कृषि से अन्न, और अन्न से यज्ञ।
कई स्थानों पर धनतेरस की रात्रि को ‘यमदीपदान’ किया जाता है। कुछ लोग इसे अंधविश्वास समझते हैं, पर इसका मूल भाव मृत्यु-भय नहीं, बल्कि यह था कि सूर्यास्त के बाद घर के बाहर छोटे दीप रख दिए जाएँ ताकि वन्य प्राणी, सर्प या कीट समीप न आएँ। यह ‘यम’ का दीप नहीं, ‘प्राण रक्षा’ का दीप था। बाद में इसे यह रूप मिला कि दीप यमराज के नाम पर रखा जाता है ताकि अकाल मृत्यु न हो। किंतु वास्तविकता यह है कि यह दीप घर के द्वार पर जलता था—संरक्षण, सावधानी और अंधकार में मार्गदर्शन के प्रतीक के रूप में।
कुछ पुराणों में धनतेरस की कथा समुद्र मंथन से जुड़ी मिलती है। कहते हैं, जब देवराज और दैत्य अमृत की खोज में क्षीरसागर मंथन कर रहे थे, तब चौदह रत्नों में एक थे धन्वंतरि, जो अमृत और औषधियाँ लेकर प्रकट हुए। यह स्मरण कराना था कि जीवन के संघर्ष, श्रम और विष-पान के बीच स्वास्थ्य को केंद्र में रखना ही अमृत का संवाहक है। आज भी अनेक गांवों में इस दिन वैद्य नए औषध-संग्रह की शुरुआत करते हैं, और घरों में हल्दी, मेथी, त्रिफला, बेल, नीम, गुड़, तुलसी आदि को नए रूप में संजोया जाता है।
प्राचीन राजाओं और क्षत्रियों के लिए भी यह दिन शस्त्र-पूजन का होता था, क्योंकि लोहे की धार से ही रक्षा और कृषि दोनों संचालित होते थे। ब्राह्मण अपने यज्ञोपकरणों का शुद्धिकरण करते, वैश्य अपने व्यापारिक खातों का नवीन आरम्भ करते और शूद्र अपने श्रम-विधान को नव ऊर्जा देते। इसी कारण यह पर्व केवल क्रय का नहीं, पुनर्नवा का प्रतीक था।
तुम यदि किसी ऋषि से पूछते कि धनतेरस का धर्म क्या है, तो वह कहता—“इस दिन अपने शरीर को, अपने अन्न को, अपने औजारों को और अपने भविष्य को शुद्ध दृष्टि से देखो। जो कुछ तुम्हारे जीवन को धारण करता है, उसका पूजन करो। औषधि को देवता समझो, औजार को सहयोगी, धातु को वरदान, और अग्नि को साक्षी।”
आज चाहे लोग स्वर्ण, चांदी या पात्र खरीदें, वस्तु से अधिक भाव को समझना आवश्यक है। यदि एक दीपक तैल से नहीं, कृतज्ञता से जले तो वही धनतेरस का सत्य है। यदि एक घर में यह स्मरण हो जाए कि शरीर का स्वास्थ्य धन्वंतरि की देन नहीं, अपनी सजगता की परिणति है, तो यह उत्सव सफल है। यदि कोई स्त्री अपने आटे के, अपने मसालों के, अपने चूल्हे के, अपने जनेऊ के, अपने कक्ष और औषधि-संग्रह के पास दीप जला दे और कहे—“यही मेरा धन है”—तो वही सच्चा पालन है।
यह पर्व किसी बाज़ार से नहीं, किसी वैदिक शैली से जन्मा है। उसके मूल में है ही यह भावना कि जीवन जिस-जिस आधार पर टिका है, उसी को पहले प्रणाम करो, फिर अमावस्या की रात्रि में लक्ष्मी का नाम लो। दीपावली की जड़ यदि वसुबारस में है, तो उसका प्रथम विस्तार धनतेरस में है। एक दिन माता के प्रति कृतज्ञता, दूसरे दिन साधनों और स्वास्थ्य के प्रति दृढ़ संकल्प।
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Labels: Diwali, Festivals, Traditional, Indian Rituals
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