नरक चतुर्दशी: अंधकार नाश और आंतरिक शुद्धि
नरक चतुर्दशी का प्रकाश तब समझ में आता है जब हम मनुष्य के भीतरी अंधकार को पहचानते हैं। दिवाली से एक दिन पहले आने वाला यह पर्व केवल मौत के किसी असुर से जुड़ी पुराणकथा नहीं है, बल्कि मनुष्य को यह समझाने के लिए है कि अज्ञान, भय, पाप, कष्ट और तमस का नाश तभी होता है जब भीतर का दीपक प्रज्वलित होता है। आज के लोग इसे छोटी दिवाली कहते हैं, पर प्राचीन काल में इसका वास्तविक नाम था ‘अभ्यंग स्नान का दिन’, ‘नरक निवारण की रात्रि’ और कहीं-कहीं इसे ‘काली चौदस’ भी कहा जाता था। यह वही दिन है जब साधु, गृहस्थ, राजा और वैश्य - सभी प्रातःकाल स्नान से पहले अपने द्वारों पर काले तिल, सुगंधित तेल, आटे के बने उबटन और हल्दी-कुंकुम से युक्त लेप का प्रयोग करते थे। इसका उद्देश्य केवल शारीरिक शुद्धि नहीं था, बल्कि यह प्रतीक था कि शरीर पर आई हुई थकान, पिछले वर्ष के कर्मों की धूल और जीवन में जमा हुई उदासी इस जल-स्पर्श से धुल जाए। जिस दिन अंधकार का नाश होता है उसी दिन मनुष्य के जीवन में लक्ष्मी का आवागमन संभव होता है, और यह क्रम धनतेरस के स्वास्थ्य-संस्कार से आगे बढ़कर नरक चतुर्दशी की आंतरिक शुद्धि से जुड़ता है।
ऋषियों की परंपरा में इस दिन की कथा उस असुर नारकासुर से संबंधित है जिसकी जन्मकथा ही अहंकार और शक्ति-दुरुपयोग की चेतावनी देती है। विष्णु से प्राप्त वरदानों से अभिमानी बना हुआ वह राक्षस सौ से अधिक राज्यों पर अत्याचार करने लगा। यह कथा केवल बाहरी युद्ध की दास्तान नहीं है, बल्कि मनुष्य के भीतर पल रहे रजोगुणी पिशाच की ओर संकेत है — वह प्रवृत्ति जो सुनने को तैयार नहीं, जो शरीर की कामना में डूबकर विवेक को मार देती है, जो धन-सत्ता के मद में संबंधों को रौंद देती है। जब विष्णु-शक्ति ने कृष्ण के रूप में अवतार लिया और सत्यभामा के साथ मिलकर उस अत्याचार का अंत किया, तो वह घटना केवल एक असुर-वध नहीं थी; वह मनुष्य की आंतरिक चेतना का जागरण था। सत्यभामा का उसमें सहभागी होना बताता है कि स्त्री-शक्ति केवल करुणा नहीं, बल्कि धर्म की रक्षक और अधर्म के संहार का साहस भी है। इसी कारण से आज भी इस दिन स्त्रियाँ तिल का तेल शरीर पर लगाकर जल में स्नान करती हैं और प्रार्थना करती हैं कि जो तमोगुण भीतर छिपा हो, वह जल और मंत्र के स्पर्श से धुल जाए।
एक और कथा दक्षिण भारत के प्राचीन ग्रन्थों में मिलती है जहाँ यह दिन 'दीपदान' से जुड़ा बताया गया है। जब नारकासुर के अत्याचारों से मुक्ति मिली, तब प्रजा ने अपने घरों के बाहर मिट्टी के दिए जलाए ताकि यह स्मरण रहे कि अंधकार चाहे कितना भी घना हो, एक दीपक उसकी औक़ात बदल सकता है। यह परंपरा आगे जाकर उत्तर भारत में भी फैली, जहाँ गोधूलि बेला में घरों के बाहर पहेली दीया जलाया जाता था और बच्चों को समझाया जाता था कि इस दीप में केवल तेल और बाती नहीं, संरक्षण की कामना जल रही है। कुछ ग्रामों में आज भी उस पहली संध्या को मिट्टी के दीपक को आँगन के तीन कोनों पर रखकर मच्छरों, कीटों और अदृश्य जीवों से रक्षा का भाव व्यक्त किया जाता है।
अगर कोई पूछे कि आज के समय में नरक चतुर्दशी का क्या प्रयोजन है, तो मैं कहूँगा कि तिथि नहीं बदली, पर नरक का स्वरूप बदल गया है। पहले युद्ध तलवारों से होते थे, अब मन के भीतर होते हैं। तब असुर सीमाओं पर हमला करते थे, अब वे स्वार्थ, तनाव, लोभ और असंयम के रूप में जीवन में प्रवेश करते हैं। पहले सत्यभामा को धनुष उठाना पड़ता था, अब आत्मा को साहस जगाना होता है। लोग बस यह समझ लें कि यह पर्व केवल छुट्टी का दिन नहीं, बल्कि मन की कालिमा को धोने का अवसर है। शरीर का उबटन प्रतीक है कि आगे की रात्रि में जो लक्ष्मी का आवाहन होगा, वह शुद्ध तन और संयत मन में ही आएगी। तेल से शरीर को मलना पूर्वजों ने इसलिए आवश्यक माना ताकि त्वचा में जमा विकार निकल जाए और सूर्य-किरणों से पहले स्नान करने पर वह तन भीतर तक हल्का हो जाए। इस प्रक्रिया के समय स्त्रियाँ प्राचीन गीत गाती थीं: ‘उठ नारक, स्नान कर, प्रकाश को बुला, तम को दरवाजे से बाहर निकाल।’ इन गीतों में वह पुरानी बोली होती थी जो आज लुप्तप्राय है, पर उनमें एक ऐसी कांति है जो श्रुति की तरह कानों में गूँजती है।
कुछ क्षेत्रों में यह पूजा यमराज से भी जुड़ी मानी जाती है। कहते हैं कि जिस दिन नरकासुर का अंत हुआ, उसी दिन यमराज ने भी यह वचन दिया कि यदि कोई प्राणी स्नान करके दीपदान करेगा और गौ को अन्न अर्पण करेगा, तो वह असमय मृत्यु के बंधन से मुक्त रहेगा। इसलिए दक्षिण भारत में लोग सुबह तिल के तेल से मालिश करके अभ्यंग स्नान करते हैं और रात में यमदीप जलाते हैं। उस दीप को घर की दक्षिण दिशा की ओर रखकर कहा जाता है—“यह प्रकाश उस मार्ग को रोशन करे जहाँ आत्माएँ भ्रमित होती हैं।” मिट्टी का यह छोटा-सा दीप किसी मृतक आत्मा के स्वागत का नहीं, बल्कि अपने जीवन को मृत्यु के भय से मुक्त करने का प्रतीक है।
आज के शहरी घरों में लोग नहाकर सीधे बाज़ार या काम में लग जाते हैं, पर गाँवों के कुछ हिस्सों में अब भी कौवों के लिए रोटियाँ, गाय के लिए हरी घास, कुत्तों के लिए रोटी या बासी चावल और चींटियों के लिए आटा-दूध मिलाकर चढ़ाया जाता है। यह सब केवल ‘पुण्य’ के भय से नहीं होता, बल्कि यह भाव रहता है कि यदि भीतर की क्रूरता कम करनी है, तो पहले बाहर के छोटे जीवों में अपना हक बाँटना होगा। हमारे पुरखों ने नरक चतुर्दशी को स्वार्थ के नाश से जोड़ा था और इसीलिए इस दिन भोजन में सादा चीजें बनती थीं—कहीं चिवड़ा-दही, कहीं तिल-गुड़, कहीं मोटे आटे की रोटी और बैल या गाय को पहला निवाला।
जहाँ सत्यभामा और कृष्ण की कथा है वहीं एक प्राचीन दार्शनिक अर्थ भी प्रचलित रहा है। वैदिक मनीषियों के अनुसार ‘नरक’ का अर्थ केवल वह स्थान नहीं जहाँ मृत्यु के बाद पापी जाता है, बल्कि यह वह ‘स्थिति’ है जहाँ मनुष्य सत्य से कट जाता है। इस चतुर्दशी का ज्योतिषीय सम्बन्ध भी गहरा है—कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चौदस उस तिथि को आती है जब चन्द्रमा का प्रकाश सबसे क्षीण होता है। यह वही क्षण है जब प्रकृति अँधेरे की पराकाष्ठा में होती है और अगले दिन अमावस्या में प्रवेश करके फिर प्रकाश के चक्र में जाती है। अतः यह दिन ब्रह्माण्डीय परिवर्तन का प्रतीक भी है—जैसे प्रकृति एक गहरी सांस लेकर अगली प्रभात के लिए तैयार होती है, वैसे ही मनुष्य भी चतुर्दशी की रात्रि में अपने दोष, दुःख और बोझ उतारकर रौशनी के स्वागत की तैयारी करता है।
पुरानी ऋग्वैदिक शैली में यदि कहा जाए तो यह दिन अग्नि और जल का संयोग है। जल से स्नान, अग्नि से दीपदान। शरीर का स्नान और चित्त का शोधन एक साथ होते हैं। यही वजह है कि पूर्वकाल में साधक इस दिन ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नदी किनारे जाते, अपने त्रिकाल-संध्या के जप से पहले तिल-मिश्रित जल में डुबकी लगाते और शरीर से निकले हुए जल को दक्षिण दिशा में प्रवाहित करते। यह जल केवल स्नान का नहीं होता था, यह काया के दोषों का निष्कासन समझा जाता था। लौटकर जब वे घर की दहलीज पर दीप रखते और मंत्र बोलते—“तमसो मा ज्योतिर्गमय”—तो वह केवल उच्चारण नहीं, जीवन-दृष्टि होती थी।
यदि कोई समझना चाहे कि नरक चतुर्दशी का सार क्या है तो इतना जान ले कि यह मनुष्य को उस परिस्थिति से बाहर लाने का उत्सव है जहाँ वह स्वयं अपने भीतर फँसा हो। इस दिन यदि व्यक्ति पुराने झगड़े, कटु वचन, घृणा या नकारात्मक भावों को छोड़ सके, तो वह अपने भीतर के नारकासुर को मार देता है। जितने दीप वह जलाता है, उतनी परतें उसके भीतर के अंधकार की टूटती हैं। और यही शायद कृष्ण की कथा का मूल बोध भी है—असुर का सिर काटना केवल बाहरी घटना नहीं, यह मन के भीतर के अपराधी को हटाना है। सत्यभामा का बाण यह दर्शाता है कि जब स्त्री-शक्ति जागे और पुरुष-विवेक उसके साथ हो, तभी नरक का अंत संभव है।
दिवाली का यह दूसरा पड़ाव उसी समय पूर्ण होता है जब मनुष्य अंदर से हल्का और बाहर से जागृत होता है। वासुबारस में गौ की स्मृति से जीवन का पोषण याद दिलाया गया, धनतेरस में स्वास्थ्य और आयु की रक्षा की प्रार्थना हुई, और नरक चतुर्दशी में तमस के समूल अंत का आह्वान। अगले सोपान की ओर बढ़ने से पहले यह दिन चेतावनी देता है—यदि भीतर की कालिमा बची रही तो दीपावली की रात भी केवल बिजली और पटाखों का खेल बनकर रह जाएगी।
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Labels: Diwali, Festivals, Traditional, Indian Rituals
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