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परिवार एक संस्कार है, संस्था नहीं | Family is Not an Institution it is Sanskar

परिवार एक संस्कार है, संस्था नहीं | Family is Not an Institution it is Sanskar Family is Sanskar

परिवार को यदि केवल एक संस्था कह दिया जाए तो यह वैसा ही होगा जैसे किसी मंदिर को केवल एक इमारत कहना। इमारत में दीवारें होती हैं, छत होती है, दरवाज़े होते हैं | पर मंदिर में उन सबके साथ भावना होती है, श्रद्धा होती है, प्राण प्रतिष्ठित होते हैं। उसी प्रकार परिवार केवल साथ रहने वाले कुछ व्यक्तियों का समूह नहीं है, वह आत्माओं का ऐसा संगम है जिसमें संस्कार, स्नेह, कर्तव्य, त्याग और भावनाएँ प्राण की तरह प्रवाहित होती हैं। संस्था नियमों पर चलती है, परिवार प्रेम पर। संस्था अनुबंधों से बंधती है, परिवार हृदयों से। संस्था में अधिकार होते हैं, परिवार में अपनत्व।

संस्था का अस्तित्व व्यवस्था के लिए होता है, जबकि परिवार का अस्तित्व जीवन को अर्थ देने के लिए। परिवार में कोई सदस्य केवल अपनी बुद्धि से नहीं, बल्कि अपने मन, अपने भाव और अपने आचरण से जुड़ा रहता है। पिता केवल एक अभिभावक नहीं है, वह दिशा देने वाला दीपस्तंभ है। माता केवल एक रसोई संभालने वाली नहीं, बल्कि पूरे घर की ऊर्जा है|  उसकी ममता ही उस घर को घर बनाती है। भाई-बहन केवल सह-नागरिक नहीं, बल्कि जीवन संघर्ष में ढाल और संबल हैं। दादा-दादी केवल बुजुर्ग नहीं, बल्कि चलते-फिरते ग्रंथ हैं जिनके अनुभवों से आने वाली पीढ़ी का चरित्र ढलता है।

किसी संस्था में यदि कोई सदस्य नियमों का पालन न करे तो दंड मिलता है, पर परिवार में यदि कोई गलती करे तो उसे सुधारा जाता है। संस्था अनुशासन थोपती है, परिवार अनुशासन जगाता है। संस्था में लक्ष्य होता है ‘कार्य पूरा करना’, परिवार में लक्ष्य होता है ‘चरित्र बनाना’। यही कारण है कि जहां संस्थाएँ टूटती हैं तो केवल व्यवस्था बदलती है, पर जब परिवार टूटते हैं तो पूरी सभ्यता चरमराने लगती है।

आज के आधुनिक समय में लोग परिवार को एक ‘सोशल यूनिट’ या ‘कानूनी इकाई’ कहकर उसकी गहराई को केवल कागज़ों पर बाँधने की कोशिश करते हैं |  पर वे भूल जाते हैं कि परिवार का निर्माण कानून से नहीं, संस्कार से होता है। विवाह केवल एक सामाजिक अनुबंध नहीं है, वह दो जीवनों का ऐसा संकल्प है जिसमें दो व्यक्ति नहीं, दो कुल मिलकर एक वंश का भविष्य रचते हैं। माता-पिता अपने बच्चों को केवल भोजन और शिक्षा नहीं देते, बल्कि सोचने की दिशा, जीने की रीति और मनुष्य बनने की कला सिखाते हैं। यह काम कोई संस्था नहीं कर सकती | संसार की सबसे बड़ी विश्वविद्यालयें भी नहीं।

परिवार ही वह स्थान है जहाँ बच्चा शब्द बोलना सीखने से पहले भावों को समझना सीखता है। माँ की गोद सबसे बड़ी पाठशाला है, बड़ों के चरण सबसे बड़ा तीर्थ हैं, और घर की रसोई सबसे पवित्र यज्ञशाला है। जिस घर में रोटी प्रेम से बनती है, वहाँ देवता स्वयं निवास करते हैं। जिस परिवार में सब मिलकर खाते हैं, वहाँ धन कम हो सकता है पर आनंद कभी कम नहीं होता।

संस्था समय के साथ बदलती है और कभी-कभी समाप्त भी हो जाती है |लेकिन संस्कार पीढ़ी दर पीढ़ी चलते हैं। परिवार वही है जहाँ व्यक्ति जाते-जाते भी अपनी गंध छोड़ जाता है | उसकी वाणी, उसका व्यवहार, उसका प्रेम आने वाली पीढ़ियों के संस्कारों में बस जाता है।

इसलिए परिवार को संस्था मत कहो|  वह तो मनुष्य की पहली पाठशाला, पहली प्रयोगशाला, पहला तीर्थ और पहला मंदिर है। यदि परिवार टूट गया तो समाज अपने आप विखंडित हो जाएगा। यदि परिवार सुदृढ़ है तो समाज स्वयं समृद्ध बन जाएगा।

जिस घर में संस्कार रहते हैं, वहाँ ईश्वर को आने के लिए मूर्तियों की आवश्यकता नहीं होती।

और जहाँ केवल संस्था बची रह गई, वहाँ रोटियाँ तो होती हैं पर स्वाद नहीं, लोग तो होते हैं पर संबंध नहीं, घर तो होता है पर गृह नहीं।

परिवार नियमों से नहीं, कृतज्ञता से चलता है। यह खून के रिश्तों से नहीं, गुणों के रिश्तों से टिकता है। यही समझ लेना ही परिवार का सही अर्थ समझना है 

परिवार एक संस्कार है, संस्था नहीं।



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✍️ Author: तुनारिं | Published by सनातन संवाद © 2025

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