आज का हिंदू धर्म की रक्षा के लिए भावुक तो बहुत है, लेकिन प्रतिबद्ध बहुत कम है।
क्रोध जल्दी आता है, लेकिन कर्म बहुत देर से होते हैं। भावनाएँ ऊँची हैं, लेकिन अभ्यास बेहद कम है। सोशल मीडिया पर गर्जना जोरदार है, लेकिन जीवन में अनुशासन बहुत कमजोर।
हम चाहते हैं कि बच्चे संस्कारी बनें, लेकिन वे हमें संस्कार जीते हुए कहाँ देख पाते हैं?
हम कहते हैं— “सनातन सर्वोपरि है।”
लेकिन हमारा आचरण क्या इस वाक्य का समर्थन करता है?
कड़वी सच्चाई यह है—
धर्म भावनाओं से नहीं बचता;
धर्म अनुशासन, तप और निरंतरता से बचता है।
जितना समय हम बहस में खर्च करते हैं, अगर उतना समय साधना, स्वाध्याय और सेवा में लगाएँ, तो संकट स्वयं मिट जाए।
जय सनातन 🔱
भावनाएँ सुंदर हैं… पर कर्म ही धर्म का वास्तविक स्वरूप है।
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संक्षेप में — क्या करें
- बहस की जगह साधना और स्वाध्याय को प्राथमिकता दें।
- नियमित अभ्यास और अनुशासन से ही धर्म सुदृढ़ रहता है।
- बच्चों को संस्कार दिखाकर सिखाएँ, शब्दों से नहीं।
FAQ — सामान्य प्रश्न
प्रश्न: क्या भावनाएँ धर्म के लिए पर्याप्त हैं?
उत्तर: नहीं — धर्म का वास्तविक रूप कर्म और अनुशासन में दिखता है।
प्रश्न: हम रोज़ कितना समय साधना/स्वाध्याय में दें?
उत्तर: जितना समय हम अनावश्यक बहसों और सोशल मीडिया पर बिताते हैं, उतना ही समय अगर साधना और स्वाध्याय में दें तो प्रभाव दिखेगा।
प्रश्न: बच्चे संस्कार कैसे सीखें?
उत्तर: माता-पिता अपने व्यवहार से संस्कार दिखाएँ; रोज़ के छोटे अनुशासन बच्चों में आकृत होते हैं।
लेखक / Writer : तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By : सनातन संवाद
Copyright disclaimer:
इस लेख का सम्पूर्ण कंटेंट लेखक तु ना रिं और सनातन संवाद के कॉपीराइट के अंतर्गत सुरक्षित है। बिना अनुमति इस लेख की नकल, पुनःप्रकाशन या डिजिटल/प्रिंट रूप में उपयोग निषिद्ध है। शैक्षिक और ज्ञानवर्धन हेतु साझा किया जा सकता है, पर स्रोत का उल्लेख आवश्यक है।
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