कर्म का सनातन नियम — भाग्य नहीं, निर्णय जीवन लिखते हैं
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी। आज मैं तुम्हें उस सत्य से परिचित कराने आया हूँ जिसे जानकर मनुष्य डरता भी है और मुक्त भी होता है — कर्म का नियम।
अधिकांश लोग अपने दुःख, असफलता और पीड़ा का कारण भाग्य, ग्रह, समय या दूसरों को मानते हैं। पर सनातन धर्म सीधा कहता है — जो है, वह कर्म का परिणाम है।
कर्म का अर्थ केवल “किया गया काम” नहीं। कर्म है — सोचा गया विचार, बोला गया शब्द, किया गया निर्णय और न किया गया कर्तव्य।
सनातन कहता है — हर कर्म एक बीज है। कुछ बीज तुरंत फल देते हैं, कुछ समय लेते हैं, और कुछ अगले जन्म तक प्रतीक्षा करते हैं।
यही कारण है कि कभी अच्छे लोगों के साथ भी बुरा होता दिखता है और कभी बुरे लोग सुखी प्रतीत होते हैं। पर नियम अटल है — फल टल सकता है, बदल नहीं सकता।
कर्म का सबसे गूढ़ रहस्य यह है — कर्म का फल केवल कर्म से नहीं, भाव से भी निर्धारित होता है।
एक ही कार्य यदि स्वार्थ से किया जाए तो बंधन बनता है। यदि कर्तव्य से किया जाए तो मुक्ति का मार्ग बनता है।
कृष्ण ने गीता में कहा — “कर्म करो, फल की आसक्ति छोड़ दो।”
इसका अर्थ यह नहीं कि फल नहीं मिलेगा। इसका अर्थ है — फल तुम्हें बाँधे नहीं।
सनातन धर्म भाग्य को नकारता नहीं, पर यह स्पष्ट करता है — भाग्य भी कर्म से ही जन्म लेता है। आज का कर्म कल का भाग्य बनता है।
इसलिए यदि जीवन अंधकार में है, तो दोष मत खोजो — दीप जलाओ।
और वह दीप है — सही कर्म, सही भाव और सही मार्ग।
कर्म का नियम कठोर नहीं, वह न्यायपूर्ण है। वह किसी से पक्षपात नहीं करता। राजा हो या रंक, देव हो या मानव — सब समान।
यही कारण है कि सनातन धर्म में मनुष्य को डराया नहीं जाता, जगाया जाता है।
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