कर्म का सिद्धांत — भगवान माफ कर सकते हैं, कर्म नहीं
सनातन धर्म का सबसे अटल नियम क्या है?
कर्म।
यह वह नियम है जिसके आगे देवता भी मौन हो जाते हैं।
यह वह न्याय है जहाँ —
न रिश्वत,
न सिफारिश,
न बहाना चलता है।
जो बोया —
वही काटा।
कर्म केवल “पाप” नहीं होता,
हर सोच भी कर्म है।
आपका —
सोचना कर्म है,
चुप रहना कर्म है,
बोलना कर्म है,
अन्याय सहना भी कर्म है।
कर्म तीन प्रकार के होते हैं:
- संचित कर्म — पिछले जन्मों का जमा हुआ बोझ।
- प्रारब्ध कर्म — जो इस जीवन में भोगना ही है।
- क्रियमाण कर्म — जो आप अभी बना रहे हैं।
प्रारब्ध को टाला नहीं जा सकता,
पर क्रियमाण से भविष्य बदला जा सकता है।
संचित को —
ज्ञान जला सकता है,
भक्ति पिघला सकती है।
कर्म अंधा नहीं,
बहुत जागरूक है।
वह जानता है —
कब,
कहाँ,
कैसे देना है।
कभी आपको —
देर से फल मिलता है,
पर गलत नहीं मिलता।
सब कुछ रिकॉर्ड होता है।
हर आँसू,
हर धोखा,
हर त्याग,
हर झूठ।
इस ब्रह्मांड की कोई फाइल नहीं,
सब कुछ आत्मा में सेव है।
और जब स्क्रीन खुलेगी —
तो पूरी फ़िल्म चलेगी।
जो स्वयं सुधर गया,
उसका कर्म झुक गया।
क्योंकि कर्म परिणाम देता है,
पर चेतना उसे काट सकती है।
लेखक / Writer
तु ना रिं 🔱
प्रकाशन / Publish By
सनातन संवाद
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Labels: कर्म का सिद्धांत, Karma in Sanatan Dharma, संचित कर्म, प्रारब्ध कर्म, क्रियमाण कर्म, भगवान और कर्म, कर्म का न्याय, तु ना रिं, सनातन संवाद
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