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मंदिरों की मर्यादा और सनातन पहचान — एक आत्मचिंतन

मंदिरों की मर्यादा और सनातन पहचान — एक आत्मचिंतन 

Prayagraj teerth nagari


दिसंबर 2025 में एक विषय पूरे देश में गहराई से चर्चा का केंद्र बना हुआ है — मंदिरों की मर्यादा और सनातन पहचान। यह बहस केवल किसी एक राज्य या किसी एक मंदिर तक सीमित नहीं है, बल्कि यह उस मूल प्रश्न को छूती है कि हिंदू मंदिर क्या हैं, उनका उद्देश्य क्या है और उनकी आत्मा को कैसे सुरक्षित रखा जाए। कर्नाटक के कुछ प्रसिद्ध मंदिरों में सामने आए घटनाक्रम — जैसे गैर-हिंदू नामों की उपस्थिति, व्यवस्थाओं में बाहरी हस्तक्षेप और राजनीतिक दख़ल — ने श्रद्धालुओं के मन में एक गहरा असंतोष पैदा किया है। यह असंतोष किसी व्यक्ति के विरुद्ध नहीं, बल्कि उस व्यवस्था के विरुद्ध है जो मंदिरों की पवित्रता को एक साधारण सार्वजनिक स्थान की तरह देखने लगी है।

सनातन धर्म में मंदिर केवल इमारत नहीं होता। वह जीवित चेतना का केंद्र होता है। हमारे ऋषियों ने मंदिर को “देवालय” कहा — अर्थात वह स्थान जहाँ देव का आलय हो। वहाँ की मर्यादा, शुद्धता, आचरण और भावना सब कुछ साधारण नहीं, बल्कि साधना से जुड़ा होता है। जब कोई भक्त मंदिर में प्रवेश करता है, तो वह अपने अहंकार, अपनी राजनीति, अपनी पहचान सब कुछ बाहर छोड़कर भीतर जाता है। इसी कारण मंदिरों की परंपराएँ कठोर नहीं, बल्कि संरक्षण के लिए बनी हैं। आज जब इन परंपराओं को “पुरानी” या “भेदभावपूर्ण” कहकर चुनौती दी जाती है, तब यह प्रश्न उठता है कि क्या हम अपने ही धर्म को उसकी आत्मा से काट रहे हैं?

वर्तमान बहस का सबसे संवेदनशील पक्ष यह है कि मंदिरों में निर्णय कौन ले — श्रद्धा या सत्ता? सनातन परंपरा में मंदिर सदैव आत्मनिर्भर रहे हैं। वे समाज के दान, सेवा और आस्था से चलते थे। मंदिर केवल पूजा का स्थान नहीं, बल्कि शिक्षा, सेवा, संस्कृति और संस्कार का केंद्र हुआ करते थे। जब मंदिरों के संचालन में राजनीतिक हस्तक्षेप बढ़ता है, तब मंदिर की दिशा बदलने लगती है। पूजा से ज़्यादा प्रबंधन, साधना से ज़्यादा नियंत्रण और श्रद्धा से ज़्यादा नियम हावी होने लगते हैं। यही वह बिंदु है जहाँ भक्त का मन आहत होता है।

गैर-हिंदू नामों या प्रतीकों को लेकर उठ रही आवाज़ें भी नफरत से नहीं, बल्कि पहचान से जुड़ी हैं। जैसे किसी मस्जिद या चर्च की अपनी धार्मिक मर्यादा होती है, वैसे ही मंदिर की भी होती है। यह कहना कि मंदिरों की मर्यादा का सम्मान होना चाहिए, असहिष्णुता नहीं है। यह उतना ही स्वाभाविक है जितना किसी भी परंपरा का स्वयं को सुरक्षित रखना। समस्या तब होती है जब हिंदू ही अपने मंदिरों की विशिष्टता को “सार्वजनिक संपत्ति” कहकर हल्का बना देते हैं, जबकि अन्य धर्मस्थलों के लिए वही तर्क नहीं अपनाया जाता।

आज का समय सनातन समाज से एक शांत लेकिन दृढ़ चिंतन की माँग करता है। मंदिरों की रक्षा केवल नारों से नहीं होगी, बल्कि समझ से होगी। यह समझ कि मंदिर राजनीति का मंच नहीं, श्रद्धा का स्थान है। यह समझ कि सुधार और अपमान में अंतर होता है। और यह समझ कि यदि हम अपनी परंपराओं को स्वयं ही महत्व नहीं देंगे, तो कोई और क्यों देगा? मंदिरों की मर्यादा का प्रश्न वास्तव में हमारी आत्म-स्मृति का प्रश्न है — हम कौन हैं, कहाँ से आए हैं और किस दिशा में जाना चाहते हैं।

यह बहस आज इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह हमें आईना दिखाती है। यह पूछती है कि क्या सनातन केवल त्योहारों तक सीमित रह गया है, या वह अभी भी एक जीवित जीवन-पद्धति है। यदि मंदिर सुरक्षित हैं, तो संस्कृति सुरक्षित है। यदि मंदिरों की मर्यादा जीवित है, तो सनातन की पहचान जीवित है। और यदि आज हम इस विषय पर जागरूक होकर, बिना क्रोध लेकिन पूरे आत्मसम्मान के साथ खड़े नहीं हुए, तो आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यही पूछेंगी — जब समय था, तब आपने अपने देवालयों के लिए क्या किया?


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