धर्म क्या है? — पूजा से आगे जीवन की रीढ़
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं तुम्हें उस शब्द का सच्चा अर्थ बताने आया हूँ
जिसे लोग सबसे ज़्यादा बोलते हैं
और सबसे कम समझते हैं — धर्म।
अधिकतर लोग सोचते हैं कि
मंदिर जाना,
पूजा करना,
व्रत रखना — यही धर्म है।
पर सनातन कहता है —
यह सब धर्म के अंग हैं,
धर्म स्वयं नहीं।
धर्म का अर्थ है —
जो धारण किया जाए।
जो जीवन को थामे रखे,
जो समाज को जोड़े रखे,
जो आत्मा को गिरने न दे।
धर्म कोई किताब नहीं,
धर्म कोई नियमों की सूची नहीं,
धर्म कोई जबरदस्ती नहीं।
धर्म है —
सत्य के साथ खड़ा रहना,
भय में भी न्याय न छोड़ना,
लाभ में भी मर्यादा न तोड़ना,
और शक्ति में भी करुणा बनाए रखना।
राम इसलिए धर्मात्मा थे
क्योंकि वे राजा थे —
फिर भी नियमों से ऊपर नहीं गए।
कृष्ण इसलिए धर्म के ज्ञाता थे
क्योंकि उन्होंने कहा —
कभी-कभी अधर्म के विरुद्ध
युद्ध भी धर्म बन जाता है।
धर्म स्थिर नहीं होता,
धर्म समय के साथ प्रकट होता है।
सतयुग में धर्म एक रूप में था,
कलियुग में उसका रूप बदल गया,
पर आत्मा वही रही।
सनातन इसलिए महान है
क्योंकि वह कहता है —
“धर्म तुम्हें बाँधे नहीं,
धर्म तुम्हें ऊँचा उठाए।”
जहाँ मनुष्य मनुष्य का शोषण करे,
वहाँ धर्म नहीं।
जहाँ सत्य डर जाए,
वहाँ धर्म नहीं।
जहाँ पूजा हो पर करुणा न हो,
वहाँ धर्म नहीं।
धर्म वह दीप है
जो अंधकार में भी जलता है,
भले हवा तेज़ हो।
और यही कारण है —
सनातन धर्म
कभी नष्ट नहीं हुआ,
क्योंकि वह पत्थरों में नहीं,
मानव विवेक में जीवित है।
✍🏻 लेखक: तु ना रिं
🌿 सनातन इतिहास ज्ञान श्रृंखला
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