तीर्थ और यात्रा — जब शरीर चलता है और आत्मा जागती है
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं तुम्हें उस परंपरा का अर्थ बताने आया हूँ जिसे लोग “घूमना” समझ लेते हैं, पर सनातन में यह आत्मा का संस्कार है — तीर्थ यात्रा।
तीर्थ का अर्थ केवल नदी, पर्वत या मंदिर नहीं। तीर्थ का अर्थ है — जो तुम्हें भीतर से पार ले जाए, जो मन की मैल धो दे, जो अहंकार को झुका दे, जो जीवन को दिशा दे।
इसीलिए कहा गया — “तीर्थ वही है जहाँ विचार बदल जाए।”
सनातन ने तीर्थों को यूँ ही नहीं चुना। जहाँ नदियाँ बहती हैं, वहाँ प्रवाह सिखाया जाता है। जहाँ पर्वत हैं, वहाँ स्थिरता और धैर्य सिखाया जाता है। जहाँ वन हैं, वहाँ मौन और आत्मचिंतन सिखाया जाता है।
तीर्थ यात्रा का विज्ञान यह है — जब मनुष्य अपने आराम, अपनी सुविधा, अपने अभिमान को छोड़कर चलता है, तब उसका मन विनम्र होता है। और विनम्र मन में ही ज्ञान उतरता है।
प्राचीन काल में राजा भी पैदल चलते थे, ऋषि भी पैदल चलते थे। क्योंकि चलना केवल शरीर की क्रिया नहीं, अहंकार को पीछे छोड़ने की प्रक्रिया थी।
गंगा केवल नदी नहीं, वह शुद्धता का संदेश है। काशी केवल नगर नहीं, वह वैराग्य का पाठ है। हिमालय केवल पर्वत नहीं, वह तप और मौन की शिक्षा है।
तीर्थ यात्रा का सबसे बड़ा रहस्य यह है — यदि मन अशांत है, तो हजारों तीर्थ भी व्यर्थ हैं। और यदि मन शुद्ध है, तो जहाँ खड़े हो वहीं तीर्थ है।
सनातन इसलिए कहता है — तीर्थ बाहर नहीं, पहले भीतर करो। बाहरी यात्रा भीतरी यात्रा का माध्यम है।
जब मनुष्य चलना सीख लेता है, तो जीवन में अटकना बंद हो जाता है। और यही तीर्थ का उद्देश्य है — चलते रहो, जागते रहो।
✍🏻 लेखक: तु ना रिं
🌿 सनातन इतिहास ज्ञान श्रृंखला
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