वर्ण व्यवस्था — जन्म नहीं, गुण और कर्म का विज्ञान
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी।
आज मैं उस विषय पर बात करने आया हूँ जिसे सबसे ज़्यादा गलत समझा गया, और सबसे ज़्यादा बदनाम किया गया — वर्ण व्यवस्था।
आज के समय में वर्ण को जाति समझ लिया गया है। पर सनातन धर्म में वर्ण कभी जन्म से तय नहीं होता था।
ऋषियों ने स्पष्ट कहा — “गुण, कर्म और स्वभाव के आधार पर ही वर्ण निश्चित होता है।”
चार वर्ण बनाए गए समाज के संतुलन के लिए — ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र।
ब्राह्मण वह जिसका मन ज्ञान में रमता हो, जिसका स्वभाव सत्य और अध्ययन का हो।
क्षत्रिय वह जिसमें नेतृत्व, साहस और संरक्षण का भाव हो।
वैश्य वह जो व्यापार, कृषि और संसाधनों का प्रबंधन करे।
शूद्र वह जो सेवा, कौशल और निर्माण में दक्ष हो।
यह ऊँच-नीच नहीं थी, यह कार्य विभाजन था।
जैसे शरीर में मस्तिष्क, हाथ, पेट और पैर सब समान रूप से आवश्यक हैं, वैसे ही समाज में हर वर्ण आवश्यक था।
समस्या तब शुरू हुई जब वर्ण को जन्म से बाँध दिया गया। तब ज्ञान बंद हो गया, साधना सीमित हो गई, और धर्म पतन की ओर चला गया।
गीता में कृष्ण स्पष्ट कहते हैं — “चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः।”
अर्थात वर्ण गुण और कर्म से बने, न कि जन्म से।
सनातन व्यवस्था मनुष्य को बाँटने के लिए नहीं, संतुलित करने के लिए थी।
आज आवश्यकता है वर्ण को नहीं, विकार को तोड़ने की।
जो ज्ञान योग्य है, उसे ज्ञान मिले। जो नेतृत्व योग्य है, उसे नेतृत्व मिले।
यही सनातन का न्याय है।
✍🏻 लेखक: तु ना रिं
🌿 सनातन इतिहास ज्ञान श्रृंखला — दिन 29
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