यज्ञ और अग्नि — जब मनुष्य ने प्रकृति से संवाद किया
नमस्कार, मैं तु ना रिं, एक सनातनी। आज मैं तुम्हें उस परंपरा की बात बताने आया हूँ जिसे लोग कर्मकांड समझकर भूल गए, पर ऋषियों ने जिसे प्रकृति से संवाद का माध्यम बनाया — यज्ञ।
यज्ञ का अर्थ केवल हवन करना नहीं है। यज्ञ का मूल अर्थ है — त्याग। जो हम अग्नि में अर्पित करते हैं, वह केवल सामग्री नहीं होती, वह हमारी इच्छाएँ, अहंकार और स्वार्थ होते हैं।
अग्नि सनातन में केवल देवता नहीं, दूत है। जो मनुष्य और प्रकृति के बीच सेतु बनती है।
ऋषियों ने अग्नि को साक्षी माना। क्योंकि अग्नि कभी झूठ नहीं बोलती, कभी पक्षपात नहीं करती, जो अर्पित किया जाए उसे शुद्ध करके आगे पहुँचा देती है।
यज्ञ केवल आध्यात्मिक नहीं, वैज्ञानिक भी है। गाय के घी, जड़ी-बूटियाँ और मंत्रों का उच्चारण वातावरण को शुद्ध करता है, मन को स्थिर करता है, और समाज में सामूहिक चेतना जगाता है।
प्राचीन काल में यज्ञ व्यक्तिगत नहीं होते थे। वे सामूहिक साधना थे। जहाँ राजा, किसान, ऋषि सब एक अग्नि के चारों ओर बैठते थे।
यज्ञ का गूढ़ रहस्य यह है — यदि अग्नि के सामने तुमने झूठ बोला, तो वह झूठ तुम्हारे भीतर ही जलता रहेगा।
सनातन कहता है — यज्ञ बाहरी हो या आंतरिक, यदि त्याग नहीं, तो वह यज्ञ नहीं।
आज मनुष्य प्रकृति से केवल ले रहा है, दे नहीं रहा। इसलिए संतुलन टूटा है।
यज्ञ हमें याद दिलाता है — लेने से पहले अर्पण करना सीखो।
और यही कारण है कि यज्ञ आज भी जीवित है, क्योंकि यह परंपरा नहीं, संतुलन का विज्ञान है।
✍🏻 लेखक: तु ना रिं
🌿 सनातन इतिहास ज्ञान श्रृंखला
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