जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मज्ञान है
मनुष्य का जीवन केवल जन्म और मृत्यु के बीच का अंतराल नहीं है, यह कोई संयोगवश प्राप्त होने वाला अवसर भी नहीं है। यह जीवन एक दुर्लभ साधना-भूमि है, जहाँ आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप की पहचान करने का अवसर मिलता है। संसार में हम जो कुछ भी देखते हैं, पाते हैं, भोगते हैं – वह सब क्षणिक है। सुख और दुख, लाभ और हानि, यश और अपयश – ये सब समय की धारा में बहने वाले बुलबुले हैं। लेकिन इन सबके बीच जो अपरिवर्तनीय है, वह है आत्मा। इसी आत्मा का ज्ञान ही जीवन का अंतिम लक्ष्य है।
आत्मज्ञान का अर्थ केवल शास्त्र पढ़ लेना या उपदेश सुन लेना नहीं है। आत्मज्ञान का अर्थ है अपने भीतर उस सत्य का साक्षात्कार करना जो सदा से है और सदा रहेगा। उपनिषदों में बार-बार कहा गया है – “तत्त्वमसि” अर्थात “तू वही है।” यहाँ “वही” किसकी ओर संकेत करता है? वही ब्रह्म, वही परम सत्य, वही चेतना जो संपूर्ण सृष्टि का आधार है। आत्मज्ञान का अर्थ है यह अनुभव करना कि मैं यह शरीर, यह मन, यह बुद्धि नहीं हूँ, बल्कि इन सबका साक्षी हूँ।
संसार की सारी दौड़-भाग, परिश्रम और संघर्ष अंततः इसी बोध की ओर ले जाने चाहिए। धन, पद, वैभव, संबंध, यहाँ तक कि ज्ञान का संग्रह भी यदि आत्मज्ञान तक नहीं पहुँचाता, तो वह अधूरा है। जैसे कोई व्यक्ति रात्रि में स्वप्न देखता है – कभी सुख का, कभी दुख का – परंतु जागने पर जान लेता है कि यह सब मिथ्या था। ठीक वैसे ही आत्मज्ञान प्राप्त होने पर मनुष्य जान लेता है कि संसार का यह खेल भी केवल मायाजाल है, और उसका वास्तविक स्वरूप इन सबसे परे, शुद्ध, मुक्त और नित्य है।
आत्मज्ञान का महत्व वेदों और उपनिषदों से लेकर गीता और योगशास्त्र तक सभी ने प्रतिपादित किया है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा – “न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।” अर्थात इस संसार में आत्मज्ञान से बढ़कर कोई पवित्र वस्तु नहीं है। यह आत्मज्ञान ही मनुष्य को मोक्ष की ओर ले जाता है, जो जीवन का अंतिम लक्ष्य है। मोक्ष का अर्थ कहीं दूर जाना नहीं, बल्कि अपने भीतर ही अपने असली स्वरूप को पहचान लेना है।
साधारण जीवन में हम अपने आप को शरीर मानते हैं। भूख लगती है तो कहते हैं – “मैं भूखा हूँ।” रोग होता है तो कहते हैं – “मैं बीमार हूँ।” परंतु आत्मज्ञान होने पर व्यक्ति यह समझता है कि भूख शरीर की है, बीमारी शरीर की है, मैं तो केवल साक्षी हूँ। यह बोध जीवन की सारी पीड़ाओं से मुक्ति दिला देता है। क्योंकि पीड़ा तब तक ही है जब तक हम स्वयं को शरीर और मन से जोड़ते हैं। जब हम जान जाते हैं कि हम शुद्ध आत्मा हैं, तब सुख-दुख हमें छू नहीं पाते। यही अवस्था जीवन का परम लक्ष्य है।
आत्मज्ञान केवल दार्शनिक विचार नहीं, बल्कि यह प्रत्यक्ष अनुभव है। योग, ध्यान, भक्ति और ज्ञान सभी मार्ग इसी अनुभव की ओर ले जाते हैं। योग के माध्यम से साधक अपने मन और इंद्रियों को नियंत्रित कर आत्मा की ओर बढ़ता है। भक्ति के मार्ग में साधक ईश्वर में लीन होकर अपने अहंकार को मिटाता है और आत्मा का अनुभव करता है। ज्ञानमार्ग में साधक विवेक और विचार के द्वारा इस सत्य तक पहुँचता है कि आत्मा ही सबका आधार है। मार्ग अलग-अलग हो सकते हैं, परंतु मंज़िल एक ही है – आत्मज्ञान।
जीवन की सारी जिज्ञासाएँ, सारे प्रश्न – “मैं कौन हूँ?”, “कहाँ से आया हूँ?”, “कहाँ जाऊँगा?” – आत्मज्ञान में ही उत्तर पाते हैं। जब तक यह प्रश्न अनुत्तरित रहते हैं, मनुष्य का जीवन अधूरा रहता है। वह चाहे जितना भी भोग ले, चाहे जितनी भी सफलताएँ पा ले, भीतर कहीं एक शून्यता बनी रहती है। लेकिन आत्मज्ञान होने पर यह शून्यता भर जाती है, क्योंकि तब मनुष्य को अपने अस्तित्व की सच्चाई का बोध हो जाता है।
यह आत्मज्ञान केवल व्यक्तिगत मुक्ति के लिए ही नहीं, बल्कि समाज के कल्याण के लिए भी आवश्यक है। जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञानी हो जाता है तो उसके भीतर से स्वार्थ, लोभ और हिंसा का नाश हो जाता है। उसका जीवन करुणा और प्रेम से भर जाता है। ऐसा व्यक्ति जहाँ भी रहता है, वहाँ शांति और आनंद का वातावरण बना देता है। महात्मा, ऋषि और संत इसी आत्मज्ञान के आधार पर समाज को मार्ग दिखाते आए हैं।
आज का मनुष्य विज्ञान और तकनीक में बहुत आगे बढ़ गया है, लेकिन उसकी आत्मा अब भी अशांत है। बाहरी साधनों से सुख पाने की चेष्टा अंतहीन है। जितना पाता है, उतना और पाने की तृष्णा बढ़ जाती है। यही कारण है कि आधुनिक जीवन में तनाव, भय और असंतोष बढ़ता जा रहा है। इसका समाधान केवल आत्मज्ञान में है। आत्मज्ञान ही वह कुंजी है जो मनुष्य को भीतर से शांत और संतुष्ट बनाती है।
जीवन का अंतिम लक्ष्य आत्मज्ञान है, क्योंकि आत्मज्ञान के बिना जीवन केवल भटकाव है। यह ऐसा है मानो कोई समुद्र में नाव लेकर निकले पर दिशा न जानता हो। वह नाव इधर-उधर भटकेगी, लहरों में डगमगाएगी, कभी इधर पहुँचेगी, कभी उधर, पर मंज़िल तक नहीं पहुँच पाएगी। आत्मज्ञान ही वह ध्रुवतारा है जो जीवन की नाव को सुरक्षित किनारे तक ले जाता है।
इसलिए ऋषि-मुनियों ने सदा यही उपदेश दिया है कि धन, पद और सुख-सुविधाएँ साधन हैं, साध्य नहीं। इनका उपयोग जीवन के लिए है, परंतु जीवन का उपयोग आत्मज्ञान के लिए है। यही वह गूढ़ सत्य है जिसे समझने पर जीवन सफल हो जाता है। आत्मज्ञान के बिना जीवन अपूर्ण है, और आत्मज्ञान के साथ ही जीवन पूर्णता को प्राप्त होता है। यही अंतिम लक्ष्य है, यही परम धर्म है, यही मनुष्य जन्म का सार है।
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