हर प्राणी में वही आत्मा है
इस सृष्टि का सबसे गहरा सत्य यही है कि प्रत्येक प्राणी के भीतर जो चेतना धड़क रही है, वह अलग-अलग नहीं है — वह एक ही है। चाहे वह मनुष्य हो या पशु, पक्षी हो या वृक्ष, कीड़ा हो या सूक्ष्म जीव — उन सबके भीतर जो जीवन-स्पंदन है, जो अस्तित्व का प्रकाश है, वही एक आत्मा है, वही एक परम चेतना है। भिन्नता केवल शरीरों में है, रूपों में है, नामों में है — परंतु आत्मा में कोई भिन्नता नहीं।
जब हम कहते हैं कि “मैं हूँ”, तो यही “हूँ” सभी में समान है। कोई भी प्राणी यह नहीं कहता कि “मैं नहीं हूँ।” अस्तित्व का यह अनुभव ही आत्मा का अनुभव है। देह बदल जाती है, विचार बदलते हैं, संस्कार बदलते हैं, पर यह “मैं हूँ” की अनुभूति कभी नहीं बदलती। यही स्थिर तत्व आत्मा है। उपनिषदों ने इसी सत्य को उद्घोषित किया — “एकोऽहम् बहुस्याम्” — मैं एक हूँ, पर अनेक रूपों में प्रकट हूँ। जैसे एक ही सूर्य की किरणें अनगिनत जलधाराओं में अलग-अलग झलकती हैं, वैसे ही एक ही आत्मा अनगिनत प्राणियों में बसती है।
जब मनुष्य इस सत्य को नहीं समझता, तब वह भेदभाव, घृणा और हिंसा के मार्ग पर चलता है। वह अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ मानता है। लेकिन जिस दिन उसे यह अनुभव हो जाए कि सामने वाला प्राणी भले ही रूप में भिन्न हो, पर भीतर से वही है जो मैं हूँ — उसी दिन से उसका जीवन धर्ममय हो जाता है। वही दिन उसके भीतर करुणा का उदय करता है। फिर वह किसी के साथ अन्याय नहीं कर सकता, न किसी को कष्ट पहुँचा सकता है, क्योंकि उसे लगता है कि जिसको चोट पहुँचा रहा हूँ, वह कोई दूसरा नहीं — वही आत्मा है जो मुझमें है।
इस सत्य को समझने के बाद अहिंसा स्वतः ही जीवन का नियम बन जाती है। यही कारण है कि हमारे ऋषियों ने अहिंसा को सर्वोच्च धर्म कहा। अहिंसा केवल हिंसा न करने का नियम नहीं, बल्कि यह वह दृष्टि है जो हर प्राणी में उसी आत्मा को देखती है। बुद्ध ने जब एक घायल कबूतर को राजा के हाथों से बचाया, महावीर ने जब कीटों तक के प्रति करुणा का संदेश दिया, कबीर ने जब कहा — “जो दिल को दुखावे सो पापी है” — तब वे किसी पंथ नहीं बना रहे थे, बल्कि आत्मा की समानता का सत्य प्रकट कर रहे थे।
यदि हम ध्यान से देखें तो पूरा प्रकृति-चक्र इसी एक आत्मा की लीला है। एक बीज वृक्ष बनता है, वही वृक्ष फल देता है, फल में फिर वही बीज छिपा रहता है। जन्म और मृत्यु केवल बाहरी रूपांतरण हैं, परंतु भीतर की चेतना शाश्वत है। यह समझ होने पर मृत्यु का भय भी समाप्त हो जाता है, क्योंकि आत्मा न तो जन्म लेती है और न मरती है। वह केवल शरीरों में प्रवेश करती है और निकलती है — जैसे हम वस्त्र बदलते हैं, वैसे ही आत्मा देह बदलती है।
जब यह ज्ञान केवल विचार न रहकर अनुभव बन जाता है, तब मनुष्य का व्यवहार बदल जाता है। वह किसी से घृणा नहीं करता, किसी को तुच्छ नहीं समझता, किसी को अलग नहीं मानता। वह वृक्षों से भी प्रेम करता है, पशुओं का भी सम्मान करता है, जल और पृथ्वी को भी पवित्र मानता है — क्योंकि उसे ज्ञात है कि उसी आत्मा की अभिव्यक्ति सबमें है। ऐसे व्यक्ति की उपस्थिति भर से वातावरण पावन हो जाता है। यही संतत्व है, यही धर्म की पूर्णता है।
इस सत्य को समझे बिना धर्म अधूरा है। धर्म कोई विधि-विधान का खेल नहीं, बल्कि यही दृष्टि है — “सबमें वही आत्मा है।” जब यह अनुभूति जागती है, तब मनुष्य में किसी को दुख देने का विचार भी नहीं उठता, क्योंकि तब वह "दूसरा" देखता ही नहीं — सबमें उसी परमात्मा का रूप देखता है। यही अद्वैत का दर्शन है, यही प्रेम का शिखर है, यही मुक्ति का द्वार है।
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