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प्रकृति की रक्षा करना ही पूजा है | Sanatan Dharma Spiritual Wisdom

प्रकृति की रक्षा करना ही पूजा है | Sanatan Dharma Spiritual Wisdom

प्रकृति की रक्षा करना ही पूजा है

Prakriti Ki Raksha Karna Hi Puja Hai

पूजा का अर्थ केवल धूप-बत्ती, आरती और मंत्रोच्चार नहीं है। पूजा का वास्तविक अर्थ है — आदर करना, संभालना, प्रेम और कृतज्ञता के साथ किसी को स्वीकार करना। यदि इस अर्थ को गहराई से समझा जाए तो स्पष्ट होता है कि इस संसार में पूजा के योग्य सबसे पहला अधिकार यदि किसी का है, तो वह है — प्रकृति का। क्योंकि वही हमारी जन्मदात्री माँ है, पोषक है, रक्षक है।

मनुष्य मंदिर में जाकर देवता की प्रतिमा पर जल चढ़ाता है, पर यदि वही जलस्रोतों को प्रदूषित करता हो तो उसकी पूजा अधूरी है। कोई फूल अर्पित करता है, पर वृक्षों को काटता है — तो उसकी भक्ति अपूर्ण है। कोई अग्नि में आहुति देता है, पर वायु में ज़हर घोलता है — तो वह यज्ञ नहीं है, केवल दिखावा है।

सच्चा यज्ञ वही है जिसमें आकाश स्वच्छ रहे, जल निर्मल रहे, पृथ्वी उपजाऊ रहे, वन हरे-भरे रहें और पशु-पक्षी आनंद से विचरण कर सकें। यही ऋषियों की दृष्टि थी। हमारे शास्त्रों में नदी को देवी कहा गया, पर्वत को भगवान कहा गया, सूर्य-चंद्रमा को देवता माना गया, पशुओं तक को पवित्र स्थान दिया गया। यह अंधविश्वास नहीं था — यह प्रकृति के प्रति कृतज्ञता का भाव था।

वेदों में "पृथ्वी सूक्त" है जिसमें संपूर्ण पृथ्वी को माता कहकर स्तुति की गई — “माता भूमिः पुत्रोऽहं पृथिव्याः” — पृथ्वी मेरी माता है और मैं इसका पुत्र हूँ। आज का मनुष्य यदि इसी एक वाक्य को हृदय में उतार ले तो सारी पर्यावरण समस्याएँ अपने आप समाप्त हो जाएँ।

धर्म का सार यही है कि हम अपने आचरण से किसी भी प्राणी को पीड़ा न दें — और यदि हम प्रकृति को नष्ट कर रहे हैं तो हम अनगिनत प्राणियों की हत्या कर रहे हैं। यह केवल पाप ही नहीं, महापाप है। जो वृक्ष काटता है, वह केवल लकड़ी नहीं काटता — वह छाया काटता है, श्वास काटता है, पक्षियों का घर काटता है, भविष्य काटता है।

आज मंदिरों में घंटियाँ बजती हैं, पर जंगलों में चिड़ियों की आवाज़ें कम होती जा रही हैं। मनुष्य कृत्रिम रोशनी में दीप जलाता है, पर तारों की प्राकृतिक ज्योति को धुएँ से ढँक देता है। यह कैसी पूजा है जिसमें देवालय चमकते हैं और धरा विलाप कर रही है?

प्रकृति की रक्षा करना ही सबसे बड़ा व्रत है, सबसे बड़ा यज्ञ है, सबसे बड़ी आरती है।

  • जब हम एक पेड़ लगाते हैं, तो वह शिवलिंग पर जल चढ़ाने से बड़ा अभिषेक होता है।
  • जब हम किसी नदी को स्वच्छ रखते हैं, तो वह गंगा स्नान से भी बड़ा पुण्य है।
  • जब हम किसी पक्षी को दाना डालते हैं, तो वह प्रसाद अर्पण से भी श्रेष्ठ है।
  • जब हम मिट्टी में रसायन न डालकर उसे जीवित रखते हैं, तो वह गृह-शांति से भी पवित्र कार्य है।

ईश्वर प्रतिमाओं में नहीं, प्रकृति के कण-कण में बसता है। मंदिर में देवता का दर्शन एक क्षण देता है, पर प्रकृति में देवत्व का अनुभव हर श्वास में मिलता है। जो व्यक्ति पहाड़ों की निष्ठा, नदियों की करुणा, वृक्षों की उदारता और आकाश की विस्तारशीलता को समझ ले — वह सच्चा भक्त कहलाता है।

आज मानव सभ्यता जिस संकट से गुजर रही है — जलवायु परिवर्तन, प्रदूषण, बीमारियाँ — इन सबका कारण यही है कि हमने पूजा का मूल स्वरूप भूलकर केवल कर्मकांड पकड़ लिया। अब समय है कि हम फिर से याद करें —

सच्चा धर्म वही है जिसमें पृथ्वी सुरक्षित रहे।
सच्चा उपवास वही है जिसमें लालसा घटे और जरूरतें कम हों।
सच्चा तीर्थ वही है जहाँ हम जीवन को संरक्षित करें।
और सच्ची पूजा वही है — जहाँ प्रकृति मुस्कुरा सके।

Author/ Writer: तुनारिं

Published by सनातन संवाद © 2025

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